श्री अर्जुन जी कौन थे ?
अर्जुन पाण्डवों में मझले भाई थे अर्थात् युधिष्ठिर तथा भीमसेन से अर्जुन छोटे थे और नकुल तथा सहदेव से बड़े श्री कृष्ण चन्द्र के समान ही उनका वर्ण नवजलधर श्याम था। वे कमल नेत्र एवं आजानु बाहु थे।
भगवान् व्यास ने तथा भीष्म पितामह ने अनेक बार महाभारत में कहा है कि वीरता, स्फूर्ति, ओज, तेज, शस्त्र संचालन की कुशलता और अस्त्रज्ञान में अर्जुन के समान दूसरा कोई नहीं है। सभी पाण्डव धर्मात्मा, उदार, विनयी, ब्राह्मणों के भक्त तथा भगवान् को परम प्रिय थे; किंतु अर्जुन तो श्री कृष्ण चन्द्र से अभिन्न, उन श्यामसुन्दर के समवयस्क सखा और उनके प्राण ही थे। दृढ़ प्रतिज्ञा के लिये अर्जुन की बड़ी ख्याति है।
धर्म के पालन में अर्जुन का निश्चय उनकी शक्तियों का परिचय-
पूर्व जन्म के कई शाप वरदानों के कारण पांचाल राजकुमारी द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डवों से हुआ। संसार में कलह की मूल तीन ही वस्तुएँ हैं—स्त्री, धन और पृथ्वी। इन तीनों में भी स्त्री के लिये जितना रक्तपात हुआ है, उतना और किसी के लिये नहीं हुआ। एक स्त्री के कारण भाइयों में परस्पर वैमनस्य न हो, इसलिये देवर्षि नारद जी की आज्ञा से पाण्डवों ने नियम बनाया कि ‘प्रत्येक भाई दो महीने बारह दिन के क्रम से द्रौपदी के पास रहे।
यदि एक भाई एकान्त में द्रौपदी के पास हो और दूसरा वहाँ उसे देख ले तो वह बारह वर्ष का निर्वासन स्वीकार करे। एक बार रात्रि के समय चोरों ने एक ब्राह्मण की गायें चुरा लीं। वह पुकारता हुआ राजमहल के पास आया। वह कह रहा था जो राजा प्रजा से उसको आयका छठा भाग लेकर भी रक्षा नहीं करता, वह पापी है।
अर्जुनजी ब्राह्मण को आश्वासन देकर शस्त्र लेने भीतर गये। जहाँ उनके धनुष आदि थे, वहाँ युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ एकान्त में स्थित थे। एक ओर ब्राह्मण के गोधन की रक्षा का प्रश्न था और दूसरी और निर्वासन का भय।
धनञ्जय ने निश्चय किया-‘चाहे कुछ हो, मैं शरणागत की रक्षा से पीछे नहीं हटूंगा। भीतर जाकर शस्त्र ले आये वे और लुटेरों का पीछा करके उन्हें दण्ड दिया। गौएँ छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दीं। अब वे धनंजय निर्वासन स्वीकार करने के लिये उद्यत हुए। युधिष्ठिर जी ने बहुत समझाया-‘बड़े भाई के पास एकान्त में छोटे भाई का पहुँच जाना कोई बड़ा दोष नहीं। द्रौपदी के साथ साधारण बातचीत ही तो हो रही थी।
ब्राह्मण कौ गायें बचाना राजधर्म था, अतः वह तो राजा का ही कार्य हुआ। परंतु अर्जुन इन सब प्रयत्नों से विचलित नहीं हुए। उन्होंने कहा—’महाराज! मैंने आपसे ही सुना है कि धर्मपालन में बहाने बाजी नहीं करनी चाहिये। मैं सत्य को नहीं छोडूंगा। नियम बनाकर उसका पालन न करना तो असत्य है। इस प्रकार बड़े भाई के वचनों का लाभ लेकर अर्जुन विचलित नहीं हुए। उन्होंने स्वेच्छा से निर्वासन स्वीकार किया।
श्री कृष्ण चन्द्र क्यों अर्जुन को इतना चाहते थे ?
व्यास जी की आज्ञा से अर्जुन तपस्या करके शस्त्र प्राप्त करने गये। अपने तप तथा पराक्रम से उन्होंने भगवान् शंकर को प्रसन्न करके पाशुपतास्त्र प्राप्त किया। दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने दिव्यास्त्र उन्हें दिये। इसी समय देवराज इन्द्र का सारथि मातलि रथ लेकर उन्हें बुलाने आया।
उस पर बैठ कर वे स्वर्ग गये और वहाँ देवताओं के द्रोही असुरों को उन्होंने पराजित किया। वहीं चित्र सेन गन्धर्व से उन्होंने नृत्य-गान वाद्य की कला सीखी।
श्री कृष्ण चन्द्र क्यों अर्जुन को इतना चाहते थे, क्यों उनके प्राण धनंजय में ही बसते थे- यह बात जो समझ जाय, उसे श्री कृष्ण का प्रेम प्राप्त करना सरल हो जाता है। प्रेम स्वरूप भक्त वत्सल श्यामसुन्दर को जो जैसा, जितना चाहता है, उसे वे भी उसी प्रकार चाहते हैं। उन पूर्णकाम को बल, ऐश्वर्य, धन या बुद्धि की चतुरता से कोई नहीं रिझा सकता। अर्जुन में लोकोत्तर शूरता थी,
वे आडम्बर हीन इन्द्रिय विजयी थे और सबसे अधिक यह कि सब होते हुए भी अत्यन्त विनयी थे। उनके प्राण श्री कृष्ण में ही बसते थे। युधिष्ठिर के राजसूय- यज्ञ का पूरा भार श्री कृष्णचन्द्रपर ही था। श्यामसुन्दर ने ही अपने परम भक्त धर्मराज के लिये समस्त राजाओं को जीतने के लिये पाण्डवों को भेजा। उन मधुसूदन की कृपा से ही भीमसेन जरासन्ध को मार सके। इतने पर भी अपने मित्र अर्जुन को प्रसन्न करने के लिये युधिष्ठिर को चौदह सहस्र हाथी भगवान् ने भेंट स्वरूप दिये।
श्री कृष्णचन्द्र का विवेकवाद: अर्जुन या दुर्योधन कौन होगा महाभारत युद्ध के लिए उपयुक्त?
जिस समय महाभारत के युद्ध में अपनी ओर सम्मिलित होने का निमन्त्रण देने दुर्योधन श्री द्वारकेश के भवन में गये, उस समय श्री कृष्णचन्द्र सो रहे थे। दुर्योधन उनके सिरहा ने एक आसनपर बैठ गये। अर्जुन भी कुछ पीछे पहुँचे और हाथ जोड़कर श्यामसुन्दर के श्री चरणों के पास नम्रतापूर्वक बैठ गये। भगवान् ने उठकर दोनों का स्वागत-सत्कार किया। दुर्योधन ने कहा-‘मैं पहले आया हूँ, अतः आपको मेरी ओर आना चाहिये। श्री कृष्णचन्द्र ने बताया कि ‘मैंने पहले अर्जुन को देखा है।
लीलामय ने तनिक हँसकर कहा-‘एक ओर तो मेरी ‘नारायणी सेना’ के वीर सशस्त्र सहायता करेंगे और दूसरी ओर मैं अकेला रहूँगा; परंतु मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा। आप में से जिन्हें जो रुचे, ले लें; किंतु मैंने अर्जुन को पहले देखा है, अतः पहले माँग लेने का अधिकार अर्जुन का है।
एक ओर भगवान् का बल, उनकी सेना और दूसरी ओर शस्त्रहीन भगवान्! एक और भोग और दूसरी और श्यामसुन्दर। परंतु अर्जुन-जैसे भक्त को कुछ सोचना नहीं पड़ा। उन्होंने कहा- ‘मुझे तो आपकी आवश्यकता है। मैं आपको ही चाहता हूँ।’ दुर्योधन बड़े प्रसन्न हुए। उसे अकेले शस्त्रहीन श्री कृष्ण की आवश्यकता नहीं जान पड़ी। भोग की इच्छा करने वाले विषयी लोग इसी प्रकार विषय ही चाहते हैं। विषयभोग का त्यागकर श्री कृष्ण को पाने की इच्छा उनके मन में नहीं जगती।
श्री कृष्णचन्द्र ने दुर्योधन के जाने पर अर्जुन से कहा— भला, तुमने शस्त्रहीन अकेले मुझे क्यों लिया? तुम चाहो तो तुम्हें दुर्योधन से भी बड़ी सेना दे दूँ। अर्जुन ने कहा-‘प्रभो! आप मुझे मोह में क्यों डालते हैं? आपको छोड़कर मुझे तीनों लोकों का राज्य भी नहीं चाहिये। आप शस्त्र लें या न लें, पाण्डवों के तो एकमात्र आश्रय आप ही हैं।
अर्जुन की यही भक्ति, यही निर्भरता थी, जिसके कारण श्री कृष्णचन्द्र उनके सारथि बने। अनेक तत्त्ववेत्ता ऋषि-मुनियों को छोड़कर जनार्दन ने युद्ध के आरम्भ में उन्हें ही अपने श्री मुख से गीता के दुर्लभ और महान् ज्ञान का उपदेश किया। युद्ध में इस प्रकार उनकी रक्षा में वे दयामय लगे रहे, जैसे माता अबोध पुत्र को सारे संकटों से बचाने के लिये सदा सावधान रहती है।
अर्जुन ने अभिमन्यु की मृत्यु का मुख्य कारण जयद्रथ को जानकर प्रतिज्ञा की कल सूर्यास्त से पूर्व उसे मार डालूंगा-
युद्ध में जब द्रोणाचार्य के चक्रव्यूह में फँसकर कुमार अभिमन्यु ने वीरगति प्राप्त कर ली, तब अर्जुन ने अभिमन्यु की मृत्यु का मुख्य कारण जयद्रथ को जानकर प्रतिज्ञा की ‘यदि जयद्रथ मेरी, धर्मराज युधिष्ठिर की या श्री कृष्णचन्द्र को शरण न आ गया तो कल सूर्यास्त से पूर्व उसे मार डालूंगा। यदि ऐसा न करूँ तो मुझे वीर तथा पुण्यात्माओं को प्राप्त होने वाले लोक न मिलें।
पिता माता का वध करने वाले, गुरु-स्त्रीगामी चुगलखोर, साधु-निन्दा और परनिन्दा करने वाले, धरोहर हड़प जाने वाले, विश्वासघाती, भुक्तपूर्वा स्त्री को स्वीकार करने वाले, ब्रह्महत्यारे, गोधाती आदि की जो गति होती है, वह मुझे मिले, यदि मैं कल जयद्रथ को न मार दूँ।
वेदाध्ययन करने वाले तथा पवित्र पुरुषों का अपमान करने वाले, वृद्ध-साधु एवं गुरुका तिरस्कार करने वाले, ब्राह्मण-गी तथा अग्नि को पैर से छूने वाले, जल में थूकने तथा मल-मूत्र त्यागने वाले, नंगे नहाने वाले, अतिथि को निराश लौटाने वाले, घूसखोर, झूठ बोलने वाले, उग, दम्भी, दूसरों को मिथ्या दोष देने वाले, स्त्री पुत्र एवं आश्रित को न देकर अकेले ही मिठाई खानेवाले,
अपने हितकारी और आश्रित तथा साधुका पालन न करने वाले, उपकारी की निन्दा करने वाले, निर्दयी, शराबी, मर्यादा तोड़ने वाले कृतघ्न, अपने भरण- पोषण कर्ताक निन्दक, गोद में भोजन रखकर बायें हाथ से खाने वाले, धर्मत्यागी, उषाकाल में सोने वाले, जाड़े के भय से स्नान न करने वाले, युद्ध छोड़कर भागने वाले क्षत्रिय, वेद पाठ रहित तथा एक कुएँ वाले ग्राम में छः मास अधिक रहने वाले, शास्त्रनिन्दक, दिन में स्त्रीसंग करने वाले, दिन में सोने वाले घर में आग लगाने वाले, विष देने वाले,
अग्नि तथा अतिथि की सेवा से विमुख, गौ को जल पीने से रोकने वाले, रजस्वला से रति करने वाले, कन्या बेचने वाले तथा दान देने की प्रतिज्ञा करके लोभवश न देने वाले जिन नरकों में जाते हैं, वे ही मुझे मिलें, यदि मैं कल जयद्रथ को न मारूँ। यदि कल सूर्यास्ततक मैं जयद्रथ को न मार सका तो चिता बनाकर उसमें जल जाऊँगा।
अर्जुन ने तो श्री कृष्णचन्द्र से कह दिया- ‘आपकी कृपा से मुझे किसी की चिन्ता नहीं। मैं सबको जीत लूंगा। बात सच है; अर्जुन ने अपने रथ की, अपने जीवन की बागडोर जब मधुसूदन के हाथों में दे दी, तब वह क्यों चिन्ता करे। दूसरे दिन घोर संग्राम हुआ। श्री कृष्णचन्द्र को अर्जुन की प्रतिज्ञा को रक्षा के लिये सारी व्यवस्था करनी पड़ी। सायंकाल श्री हरि ने सूर्य को ढककर अन्धकार कर दिया। सूर्यास्त हुआ समझ कर अर्जुन चिता में प्रवेश करने को उद्यत हुए।
सभी कौरवपक्ष के महारथी उन्हें इस दशा में देखने आ गये। उन्हों में जयद्रथ भी आ गया। भगवान् ने कहा-‘ अर्जुन ! शीघ्रता करो।
जयद्रथ का मस्तक काट लो, पर वह भूमिपर न गिरे। सावधान!’ भगवान् ने अन्धकार दूर कर दिया। सूर्य अस्ताचल जाते दिखायी पड़े। जयद्रथ के रक्षक चकरा गये। अर्जुन ने उसका सिर काट लिया। श्री कृष्ण ने बताया- ‘जयद्रथ के पिता ने तप करके शंकर जी से वरदान पाया है कि जो जयद्रथ का सिर भूमिपर गिरायेगा, उसके सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे।
केशव के आदेश से अर्जुन ने जयद्रथ का सिर बाण से ऊपर-ही-ऊपर उड़ाकर जहाँ उसके पिता सन्ध्या के समय सूर्योपस्थान कर रहे थे, वहाँ पहुँचाकर उनकी अंजलि में गिरा दिया। झिझक उठने से पिता के द्वारा ही सिर भूमिपर गिरा। फलतः उनके सिर के सौ टुकड़े हो गये।
अश्वत्थामा ने जब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तब भगवान् ने ही पाण्डवों की रक्षा की। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के तेज से उत्तरा का गर्भस्थ बालक मरा हुआ उत्पन्न हुआ, उसे श्री कृष्णचन्द्र ने जीवित कर दिया। सुधन्वा को मारने की अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर ली, तब भी मधुसूदन ने ही उनकी रक्षा की।
श्री कृष्ण के नित्य संगी और प्रिय सखा-
अर्जुन महाभारत के मुख्य नायकों में से एक हैं जिन्हें धर्मनिष्ठा, उदारता, भगवद्भक्ति और शूरता की गुणवत्ता से याद किया जाता है। उनका प्रेम भगवान् श्रीकृष्ण से अनभिन्न था और श्रीकृष्ण भी उन्हें अपना प्रिय सखा और नित्य संगी मानते थे। अर्जुन का वीरता और धर्मनिष्ठा समस्त महाभारत युद्ध में दिखाई दी। दुर्योधन तक ने कहा- ‘अर्जुन श्री कृष्ण की आत्मा हैं और श्री कृष्ण अर्जुन की आत्मा हैं।
श्री कृष्ण के बिना अर्जुन जीवित नहीं रहना चाहते और अर्जुन के लिये श्री कृष्ण अपना दिव्य लोक भी त्याग सकते हैं। भगवान् स्वयं अर्जुन को अपना प्रिय सखा और परम इष्टतक कहते रहे हैं और उन्होंने अपना और अर्जुन का प्रेम बने रहने तथा बढ़ने के लिये अग्निसे वरदान तक चाहा सभी पाण्डव धर्मात्मा, उदार, विनयी, ब्राह्मणों के भक्त तथा भगवान् को परम प्रिय थे; किंतु अर्जुन तो श्रीकृष्णचन्द्र से अभिन्न, उन श्यामसुन्दर के समवयस्क सखा और उनके प्राण ही थे। धन्य हैं अर्जुन और धन्य है उनकी सख्य भक्ति!
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