“श्री बुद्ध अवतार: जीवन यात्रा और धरोहरी उपदेशों की अद्वितीय कहानी”
कलियुग में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक के रूप में गौतम बुद्ध का जन्म हुआ। श्री बुद्ध जी के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। ये स्वभाव से बड़े दयावान थे। किसी का जरा सा भी दुःख देख लेते तो विकल हो जाते। यही कारण है कि उनके पिता राजा शुद्धोदन की ओर से राज्य में ऐसी व्यवस्था थी कि कोई दुखद घटना उनकी नजर में न आये। परंतु यह सब होने पर भी दैवयोग से एकदिन सहसा एक पुरुष को, कुछ ही दिन बाद एक अत्यन्त वृद्ध पुरुष को, पश्चात् एक मृतक को देखकर इनकी आत्मा सिहर उठी और उसी दिन से ये संसार से उदास हो गये।
इनकी यह उदासीनता माता-पिता को खली और इन्हें जगत्-प्रपंच में फँसाने के लिये अत्यन्त रूपवती यशोधरा नाम की कन्या से विवाह कर दिया और समय पर सिद्धार्थ के राहुल नाम का एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ। परंतु उदासीनता मिटी नहीं बल्कि बढ़ती ही गयी।
परिणामस्वरूप, गौतम ने अपनी प्रिय पत्नी यशोधरा, नवजात पुत्र राहुल, प्यारे पिता महाराज शुद्धोदन और गौरवशाली राज्य, इन सबको अस्वीकार करते हुए, कम उम्र में घर छोड़ दिया।। केवल तर्क-पूर्ण बौद्धिक ज्ञान उन्हें सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं था। उन्हें तो रोग पर, बुढ़ापे पर और मृत्यु पर विजय पानी थी। उन्हें शाश्वत जीवन-अमरत्व अभीष्ट था।
आध्यात्मवादी, उद्भट शास्त्रज्ञों के समीप वे गए, वहां पर संतोष नहीं हुआ। आश्रमों से, विद्वानों से निराश होकर वे गया के समीप वन में आये और तपस्या करने लगे। सर्दी, गर्मी और वर्षा में भी बुद्ध जी वृक्ष के नीचे अपनी वेदिका पर स्थिर बैठे रहे। उन्होंने सब प्रकार का आहार बन्द कर दिया था।
लम्बे समय तक तपस्या करने के कारण उनके शरीर का मांस और रक्त सूख गया और केवल हड्डियाँ, नसें और आकर्षण शेष रह गये। गौतम का धैर्य अविचल था। कष्ट क्या है, इसे वे अनुभव ही नहीं करते थे। किंतु उन्हें अपना अभीष्ट प्राप्त नहीं हो रहा था। सिद्धियाँ मँडरातीं, परंतु एक सच्चे साधक, सच्चे मुमुक्षु के लिये सिद्धियाँ बाधक हैं, अतः गौतमने उनपर दृष्टिपात ही नहीं किया।
एक दिन जहाँ गौतम तपस्या कर रहे थे, उस स्थान के समीप के मार्ग से कुछ स्त्रियाँ गाती-बजाती निकलीं। वे जब गौतम की तपोभूमि के पास पहुँचीं। तब एक गीत गा रही थीं, जिसका आशय था ‘सितार के तारों को ढीला मत छोड़ो नहीं तो वे बेसुरे हो जायँगे, परंतु उन्हें इतना खींचो भी मत कि वे टूट जायँ।
गौतम के कानों में वह गीत की ध्वनि पड़ी। उनकी प्रज्ञा में सहसा प्रकाश आ गया- साधना के लिए कठिन तपस्या ही उपयुक्त नहीं है, संतुलित आहार और नियमित निद्रा का आचरण भी आवश्यक है।। इस प्रकार सम्यक् बोध प्राप्त कर लेने पर गौतम का नाम ‘गौतम बुद्ध’ पड़ा। तत्त्वज्ञान होने के बाद भगवान् बुद्ध वाराणसी चले आये और अपना सर्वप्रथम उपदेश उन्होंने ‘सारनाथ‘ में दिया।
श्री भगवान ने बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महाराज शुद्धोदन के यशस्वी पुत्र गौतम बुद्ध के रूप में अवतार लिया था। ऐसी प्रसिद्धि व्यापक है, परंतु पुराणवर्णित भगवान् बुद्धदेव का प्राकट्य गया के समीप कीकट देश में हुआ था। उनके पुण्यात्मा पिता का नाम ‘अजन’ बताया गया है।
भगवान विष्णु ने क्यों लिया था बुद्ध अवतार? एक अद्वितीय कथा के पीछे रहस्य और उद्देश्य
दैत्यों की शक्ति बढ़ गयी थी। उनके सम्मुख देवता टिक नहीं सके, देवता दैत्यों के भय से प्राण बचाकर भागे। दैत्यों ने देवधाम स्वर्गपर अधिकार कर लिया। वे स्वच्छन्द होकर देवताओं के वैभव का उपभोग करने लगे; किंतु उन्हें प्रायः चिन्ता बनी रहती थी कि पता नहीं, कब देवगण समर्थ होकर पुनः स्वर्ग छीन लें। स्थिर साम्राज्य की इच्छा से राक्षसों ने सुराधिप इन्द्र की खोज की और उनसे पूछा – ‘कृपया मुझे वह उपाय बताएं जिससे हमारा अखण्ड साम्राज्य स्थिर रहे।।
देवाधिप इन्द्र ने शुद्ध भाव से उत्तर दिया- स्थिर शासन के लिए यज्ञ और वेदविहित आचरण आवश्यक है।
दैत्यों ने वैदिक आचरण एवं महायज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ किया। फलस्वरूप उनकी शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। स्वभाव से ही उद्दण्ड और निरंकुश दैत्यों का उपद्रव बढ़ा। जगत् में आसुरभाव का प्रसार होने लगा। असहाय और निरुपाय दुखी देवगण जगतपति भगवान् श्री विष्णु के पास गये। उनसे करुण प्रार्थना की। श्री भगवान् ने उन्हें आश्वासन दिया।
श्री भगवान ने बुद्ध अवतार का रूप धारण किया। उनके हाथ में मार्जनी थी और वे मार्ग को बुहारते हुए उस पर चरण रखते थे। इस प्रकार भगवान् बुद्ध दैत्यों के समीप पहुँचे और उन्हें उपदेश दिया- ‘यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीवहिंसा होती है। यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में ही कितने जीव भस्म हो जाते हैं। देखो, मैं जीवहिंसा से बचने के लिये कितना प्रयत्नशील रहता हूँ। पहले झाडू लगाकर पथ स्वच्छ करता हूँ, तब उसपर पैर रखता हूँ।’
संन्यासी बुद्धदेव के उपदेश से दैत्यगण प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ एवं वैदिक आचरण का परित्याग कर दिया। इसके परिणामस्वरूप कुछ ही दिनों में वे शक्तिहीन हो गए।
फिर क्या था, देवताओं ने उन दुर्बल एवं शक्तिहीन दैत्यों पर आक्रमण कर दिया। असमर्थ दैत्यों की हार हुई और वे भाग खड़े हुए। देवताओं का स्वर्ग पर पुनः अधिकार हो गया। इस प्रकार संत के वेश में भगवान बुद्ध ने त्रैलोक्य मंगल किया।
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