श्री विदुर जी किसका अवतार है? एवं विदुर किस क्षेत्र के विद्वान थे?
विदुर जी ने माण्डव्य ऋषि के शाप के कारण, यमराज जी ने दासी के रूप में ही धृतराष्ट्र और पाण्डु के भाई के रूप में जन्म लिया था। वे भगवान के भक्त थे और अपने मानव जीवन में भी धर्म का पालन करते थे। विदुर जी महाराज धृतराष्ट्र के सलाहकार थे और वे हमेशा कोशिश करते थे कि महाराज धर्म का पालन करें। उन्हें नीतिशास्त्र का बड़ा ज्ञान था और वे धर्म के प्रचारक थे। उनकी विदुरनीति काफी प्रसिद्ध है, और वे हमेशा पाण्डवों के हित में काम करते थे।
जब भी धृतराष्ट्र या दुर्योधन पाण्डवों के खिलवाड़े का सोचते थे, तो विदुर जी उन्हें समझाने की कोशिश करते थे, और धृतराष्ट्र उनकी बातों का सम्मान करते थे। यहां तक कि दुर्योधन विदुर जी से बैर रखते थे। विदुर जी पाण्डवों के साथ थे और उनका साथ देते थे। जब दुर्योधन ने लाक्षा भवन में पाण्डवों को जलाने का षड्यन्त्र रचा, – इस तरह से विदुर जी का धर्म और न्याय के प्रति समर्थन किया गया।
तब विदुर जी ने उन्हें बचाने की योजना बनाई और सन्देश भेजकर युधिष्ठिर को पहले ही सतर्क कर दिया और उस खतरनाक गृह से बचने के लिए सबकुछ बता दिया।
अच्छे लोगों को हमेशा न्याय और धर्म का पालन करना पसंद होता है। वे अन्याय और अधर्म के खिलाफ होते हैं और इसके खिलाफ़ उठते हैं। इसके लिए कई बार दुर्जनों से उन्हें ठुकराना और कष्ट सहना पड़ता है। विदुर जी ने दुर्योधन के बुरे कामों के खिलाफ मजबूत आवाज उठाई। जब कौरवों ने भरी सभा में द्रौपदी के साथ अनादर किया, तो उन्होंने गुस्से में सभा छोड़ दी। पांडवों के वनवास के समय, जब दुर्योधन ने उन्हें बढ़ावा दिया, तो धृतराष्ट्र ने विदुरजी से कहा, “तुम हमेशा पांडवों की ही सराहना करते हो, इसलिए तुम उनके पास जाओ।”
विदुर जी पाण्डवों के पास गए। इसके बाद धृतराष्ट्र को यह पता चला कि विदुर के बिना उनके पास वे अकेले और बेसहाय हैं। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने विदुर को फिर बुलाया। विदुर ने सम्मान के साथ उनका आदर किया और वापस आए।
पांडवों के वनवास के दौरान कुंती देवी विदुर जी के घर में थीं। जब श्री कृष्णचन्द्र वहाँ पहुंचे तो दुर्योधन ने उनका स्वागत किया, लेकिन श्री कृष्णचन्द्र ने उनका स्वागत नहीं स्वीकार किया। उन्होंने हमेशा ऐश्वर्य से नहीं, बल्कि भक्ति और प्यार से संतुष्ट रहने की बात की। वे तुलसीदल और पानी के साथ खुश रहते थे। श्री कृष्णचन्द्र ने धृतराष्ट्र, भीष्म, भूरिश्रवा आदि इन सभी का आतिथ्य अस्वीकार कर दिया और विदुर जी के घर वे बिना निमन्त्रण के ही पहुँच गये।
विदुर के घर आये श्री कृष्ण-
अपने सच्चे भक्त के घर को वह अपना ही घर मानते थे। विदुर जी के शाक को उनके भक्त ने पूज्य बनाया। विदुरानी के केले के छिलके खिलाये और भगवान् ने उन्हें भी प्रेम पूर्वक खाया। भगवान अपने भक्तों के प्रेम में बंधे होते है |
विदुरानी के केले के छिलके की कथा प्रसिद्ध है- सबसों ऊँची प्रेम सगाई
विदुरानी ने श्री कृष्ण को देखकर अपना बुद्धि खो दिया और वे खिलाने के लिए लाए केलों को प्यार से छील-छील कर छिलके जगह पर खिलाने लगीं। इस समय, पति देव श्री विदुर भी आ गए। उन्होंने इस दृश्य को देखा और अपनी पत्नी पर नाराज हो गए। जब विदुरानी ने अपनी भूल समझी, तो उन्हें बहुत दुख हुआ।
प्रेम के वश में आकर पत्नी की यह गलती को समझकर श्री विदुर ने भगवान को केले के छिलके खिलाने लगे। अब उनके हृदय को शान्ति मिली।
भगवान ने खुश होकर कहा, “अपने जो मुझे केले खिलाये, लेकिन सच यह है कि इतने मिठास जैसा कि उन छिलकों में था, वैसा इन केलों के गूदों में कहीं नहीं था!” विदुरानी यह सोच रही थी कि वह कैसे उन हाथों को काटे, जिन्होंने गूदा फेंक दिया और छिलका खिला दिया। विदुरानी और उनकी भक्ति को धन्य माना जा सकता है! सूरदास ने भी इसे सबसे ऊँचा प्रेम समझा है – सबसे ऊँची प्रेम की सगाई।
महाराज धृतराष्ट्र के सभा में, जब श्री कृष्णचन्द्र वह से चले गए, तब वहाँ विदुर एकल रूप से महाराज धृतराष्ट्र को समझाने लगे। विदुर ने कहा कि दुर्योधन पापी है और उसके कारण कुरुकुल का नाश हो रहा है। वह सुझाव दिया कि दुर्योधन कुरुकुल के लिए खतरा है, और उसने सुझाव दिया कि पाण्डवों को उसके साथ करना बेहतर हो सकता है। लेकिन दुर्योधन इस पर खड़ा उत्तर दिया और उसने कठोर भाषा में कहा कि वह ऐसा कभी नहीं करेगा।
विदुर जी ने युद्ध में किसी पक्ष का साथ नहीं दिया और इसके बजाय शस्त्रों को छोड़ दिया। वे तीर्थाटन पर निकल गए, जहाँ वे तीर्थों में भ्रमण करते रहे। वे जो कुछ भी मिल जाता, वही खा लेते बिना किसी चाहने के। वे नंगे शरीर से कंद-मूल खाते रहे और लगभग 36 साल तक तीर्थों में घूमते रहे। आखिरकार, मथुरा में उन्होंने उद्धव जी से मिलकर महाभारत के युद्ध, यदु कुल के पतन और भगवान के अपने स्वर्गवास के बारे में जानकारी प्राप्त की।
भगवान् ने स्वधाम पधारते समय महर्षि मैत्रेय को आदेश दिया था विदुर जी को उपदेश करने का । विदुर जी ने उद्धव जी से मिलकर ज्ञान प्राप्त किया और फिर हरिद्वार गए। वहां, मैत्रेय जी से मिलकर उन्होंने भगवदुपदिष्ट तत्त्व ज्ञान प्राप्त किया और फिर हस्तिनापुर वापस आए। हस्तिनापुर में, विदुर जी ने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को आत्मकल्याण की दिशा में मार्गदर्शन किया। उनके उपदेश से धृतराष्ट्र और गांधारी का मोह दूर हुआ और वे वन में चले गए। विदुर जी हमेशा से विरक्त थे और वन में जाकर उन्होंने भगवान में ध्यान लगाकर शरीर को छोड़ दिया |
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