कमठ (कच्छप) अवतार की कथा कहानी – Story of Kamath (Kachhapa) Avatar
भगवान विष्णु के कमठ (कच्छप) अवतार : जब दुर्वासा जी के श्राप के कारण इन्द्र सहित तीनों लोक श्रीहीन हो गये।। इस समस्या का समाधान ढूढ़ने के लिए, वे ब्रह्मा जी की शरण में गए। ब्रह्मा जी ने उनकी समस्या को सुनी और उन्हें यह सलाह दी कि दैत्यों और दानवों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करना चाहिए।
समुद्र मंथन के दौरान, पहले कालकूट नामक हानिकारक विष निकलेगा, इसके डर से बचने के लिए सचेत रहना आवश्यक होगा। फिर अनेक रत्न (मनि) निकलेंगे, इनमें मोहित न होना चाहिए। अंत में, अमृत निकलेगा, और इसे सभी देवता उपयुक्त युक्ति से पी सकते हैं।
इस समस्या का समाधान करने के लिए देवता ने दैत्य राजा बलि से सहमति प्राप्त की और मंदराचल पर्वत को मथने का प्रयास किया। हालांकि, इसके दौरान उन्हें बहुत थकान महसूस हुई, इसलिए भगवान विष्णु प्रकट होकर पर्वत को उठाकर गरुड़ पर रखकर समुद्र किनारे पहुँचे।
मन्थन करने के लिए, देवताओं और दैत्यों ने मन्थन पर्वत के सिर पर वासुकि नामक नाग को डाला। समुद्र मंथन का काम शुरू हो गया, और इस कार्य के दौरान देवताओं और असुरों ने अपनी भार और थकान के बावजूद उसे पूरा किया।
इस प्रकार अपना सब करा कराया मिट्टी में मिलते देखकर बहुत दुखी हुए तभी भगवान विष्णु ने कहा, हँसते हुए कहा- सभी कार्यों के प्रारम्भ में भगवान गणेश की पूजा करनी चाहिए। उस समय, यह देखकर कि यह सब (भगवान विष्णु ) की लीला थी, उन्होंने कहा: वह स्वयं सब कुछ करने में सक्षम है, लेकिन अपने काम की शुरुआत में वह भगवान गणेश की पूजा की गरिमा को भूल नहीं सकते। बिना उनकी प्रजा के कार्य सिद्ध होता नहीं होता।
अब उनकी पूजा करनी चाहिए। वह बहुत लीलामय हैं, जब उन्होंने देवताओं और दैत्यों को यह सुझाव दिया कि वे श्री गणेश जी की पूजा करें, तो सभी लोग उनकी पूजा में लग गए। वही समय, भगवान् विष्णु ने तुरंत बड़े विचित्र कच्छप के रूप में समुद्र में प्रवेश किया और अपनी बड़ी पीठ पर मन्दराचल को ऊपर उठा लिया। इसके बाद, देवता और दैत्य समुद्र को बड़े जोर से मथने लगे।
भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार धारण किया था और मन्दराचल पर रखा था। उन्होंने दूसरे रूप में देवताओं के साथ रहा था। और तीसरे रूप में मन्दराचल को अपने हाथों से दबाया था ताकि वह उछल न जाए।
मथन का काम बहुत देर तक चला, लेकिन अमृत नहीं निकला। तब भगवान ने सहस्रबाहु वाले रूप में दोनों ओर से मथन करना शुरू किया। उनकी आभा अद्वितीय थी, और ब्रह्मा, शिव, सनकादि ऋषिगण आकाश से पुष्प बरसा रहे थे और समुद्र भी उनका जय-जयकार कर रहा था।
समुंदर से पहली बार ‘हलाहल कालकूट विष’ निकला, जिसके कारण त्रैलोक्य में हलचल मच गई। फिर, देवों के देव महादेव ने इसे संभाल लिया। इसके बाद, और भी रत्न निकले। ऋषियों ने ‘कामधेनु’ नामक रत्न को स्वीकार किया। ‘उच्चैःश्रवा’ नामक बहुत ही सुंदर और बलशाली घोड़ा दैत्यों द्वारा प्राप्त किया गया। बाद में, ‘ऐरावत’ नामक महान हाथी ने देवों के राजा इंद्र को मिला। ‘कौस्तुभमणि’ को प्राप्त किया, और भगवान ने इसे अपने गले में धारण किया। ‘कल्पवृक्ष’ बिना किसी की मांग के स्वर्ग चला गया। ‘अप्सराएँ’ भी अपने इच्छा से स्वर्ग में चली गईं। ‘भगवती लक्ष्मी’ ने अपने आप को उदासीन रहकर भगवान विष्णु को चुना, जो सभी गुणों से सम्पन्न थे।
‘वारुणी देवी’ को दैत्यों ने बड़ी इच्छा से पकड़ लिया। ‘धनुष’ किसी के द्वारा उठाया नहीं गया। तब भगवान विष्णु ने इसे उठाया। ‘चन्द्रमा’ को अनगिनत आकाश की सैर करने के लिए दिया गया। ‘दिव्यशंख’ को भगवान ने स्वीकार किया। अंत में, ‘अमृत कलश’ को धन्वंतरि महाराज ने हाथ में लिया। दैत्यों ने उसको छीन लिया, और देवताएँ उदास हो गई। तब भगवान ने मोहिनी रूप धारण किया, और दैत्यों को व्यामोहित कर अमृत कलश लिया, जिसको वह देवताओं को पिला दिया। देवताओं की पंक्ति में सूर्य और चंद्रमा के बीच एक दैत्य आकर्षित हो गया, जिसने अपने रूप को बदल दिया था।
उसे अमृत पिलाया ही जा रहा था लेकिन चन्द्रमा और सूर्य ने उसे पहचान लिया और तुरंत ही भगवान् के चक्र ने उसका सिर काट दिया। हालांकि कुछ अमृत उसे मिल गया था, इसलिए उसका मरना नहीं हुआ। इस कारण, उसे ग्रहों में एक स्थान दिया गया। अब राहु अब भी सूर्य और चन्द्रमा के साथ बदला लेने के लिए उनके पर्वों, जैसे कि अमावस्या और पूर्णिमा पर आक्रमण करता है, इसे “ग्रहण” कहा जाता है। देवताओं ने अमृत पी लिया था और भगवान् कच्छप का आश्रय था। इसलिए इस बार देवताओं की जीत हुई।
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