भक्त सुमेरु गोस्वामी श्री तुलसीदास जी की कथा चरित्र
महर्षि वाल्मीकि, जी ने ही गोस्वामी तुलसीदास के रूप में अवतार लिया। आदि कवि ने त्रेतायुग में श्री रामायण महाकाव्य लिखा, जिसमें (श्लोक अथवा रामायण) संख्या सौ करोड़ है। इस पाठ के एक-एक अक्षर के उच्चारण के माध्यम से ब्रह्महत्या आदि महापाप परायण प्राणियों को भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
ये गोस्वामी श्री तुलसीदास जी श्री सीता राम के भक्त थे, और वे नियम-निष्ठाओं का पालन दृढ़ता से करते थे। वे दिन-रात श्री राम नाम का जाप किया करते थे। इस संसार-सागर को पार करने के लिए उन्होंने श्री रामचरितमानस नामक सुंदर-सुगम नौका का निर्माण किया।
श्री तुलसीदास जी का बाल्यकाल और उनके द्वारा गृहस्थ का परित्याग
प्रयाग के पास चित्रकूट जिले में एक गाँव है जिसका नाम राजापुर है। इस गाँव में एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे, जिनका नाम आत्माराम दूबे था। उनकी पत्नी का नाम हुलसी था। इनके यहाँ उनकी पत्नी के गर्भ से गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म हुआ। तुलसीदासजी का जन्म श्रावण महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को हुआ था, जब मूल नक्षत्र अभुक्त था। तुलसीदासजी के जन्म के दूसरे दिन ही उनकी माता इस संसार से विदा हो गई हो गईं।
दासी बुनियाँ ने बड़े प्यार से छोटे बच्चे तुलसीदास का ख्याल रखा, और बालक का नाम रामबोला रखा। जब तुलसीदास लगभग पांच साल के हो गए, वही समय आया कि दासी भी इस दुनिया को छोडकर चली गईं, जिसके कारण वह छोटे तुलसीदास अनाथ हो गया। अब वह खोए-खोए से घर के बाहर भटकने लगे। इस पर माता पार्वती ने उस पर दया की अवश्यकता महसूस की। वे एक ब्राह्मणी औरत के रूप में प्रतिदिन उसके पास जाकर उसका ख्याल रखने आने लगीं और उसके लिए भोजन बनाकर लातीं।
भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्रीअनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्री नरहरिदास इस बच्चे को ढूंढने निकले। उन्होंने इस बच्चे को अयोध्या ले आये और माघ महीने की पंचमी के दिन उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया। बिना किसी की मदद के, राम बोला ने गायत्री मंत्र का पठ किया। इसके बाद, नरहरि स्वामी ने उसे वैष्णव संस्कार दिलाने के लिए राम मंत्र की दीक्षा दी और वह अयोध्या में ही रहकर उसकी शिक्षा करने लगे। थोड़ी देर बाद, गुरु और शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ पर श्री नरहरिजी ने तुलसीदास को श्री रामचरित मानस का पाठ सुनाया।
तुलसीदास जी ने काशी में शेष सनातन जी के पास रहते हुए, तुलसीदासजी ने पंद्रह वर्ष तक वेदांगों का अध्ययन किया। उसके बाद, अपने विद्यागुरु की सीख को मानते हुए वे अपने जन्मभूमि पर वापस आए। वहां उन्होंने अपने पिता और अन्य पूर्वजों के श्राद्ध का आयोजन किया और वहीं रहते हुए वे लोगों को भगवान राम की कथाएँ सुनाने लगे।
फिर, एक दिन संवत्सर्ग के ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष के गुरुवार को, उनका विवाह भारद्वाज गोत्र की एक सुंदर कन्या के साथ हुआ, और वे अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहने लगे। एक दिन, उनकी पत्नी अपने भाई के साथ मायके चली गई। पीछे-पीछे तुलसीदास जी भी वहाँ पहुंचे। उनकी पत्नी ने इस पर उन्हें बहुत डांटा और कहा, “मेरे इस शरीर-में जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उससे आधी भी यदि भगवान में होती, तो तुम्हारा बेड़ा पार हो जाता। तुलसीदास जी को यह शब्द सुनकर तुरंत रुके और वहाँ से चले गए। उन्होंने फिर प्रयाग जाकर गृहस्थ जीवन का त्याग किया और साधु बन गए। उन्होंने तीर्थ यात्रा करते हुए काशी पहुंचे।
तुलसीदास जी कि श्री हनुमान जी से भेंट
काशी में तुलसीदास जी राम कथा कहने लगे। एक दिन वहां उन्हें एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बताया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास जी ने उनसे श्री रघुनाथ जी के दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा, ‘तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथ जी के दर्शन होंगे।’ तब तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर बढ़ गए। चित्रकूट पहुँचकर वह रामघाट पर अपना आसन लगाया।
एक दिन वे बाहर प्रदक्षिणा करने निकले थे। वहाँ पर, उन्होंने देखा कि दो बड़े सुंदर राजकुमार घोड़ों पर सवार थे और धनुष-बाण लिए जा रहे थे। तुलसीदास जी उन्हें देखकर हेरान हो गए, लेकिन उन्हें पहचान नहीं सके। फिर हनुमान जी आये और उन्हें सच्चाई बताई। इसके बाद, वे बहुत पश्चात्ताप करने लगे। हनुमान जी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा कि कल पुनः के दर्शन होंगे।
चित्रकूटम भगवान् श्री राम के दर्शन और काशी में श्री शंकर जी से वर प्राप्ति
मौनी अमावस्या के दिन, बुधवार को, भगवान श्री राम अपने भक्त तुलसीदास के सामने पुनः प्रकट हुए। वे बच्चे के रूप में तुलसीदासजी के पास आए और उनसे कहा – “बाबा, कृपया हमें चन्दन लगाइये।” हनुमान जी ने यह सोचा कही इस बार भी तुलसी धोखा न खा जाये, इसलिए उन्होंने एक तोते के रूप में धारण करके निम्नलिखित दोहा कहा:
चित्रकूट के घाट पर भड़ संतन की भीर।
तुलसिदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर ।।
तुलसीदास जी ने हनुमान जी की आज्ञा पर अपनी शरीर की सुधि भूलकर वह अद्भुत छवि देखी। भगवान् ने अपने हाथ से चन्दन लिया और उसे अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया, जिससे वे अंतर्धान हो गए।
इसके बाद, वे अयोध्या की ओर चल पड़े, हनुमान जी की आज्ञा के अनुसार। उन दिनों माघ मेला प्रयाग में चल रहा था, और वहाँ कुछ दिनों तक ठहरे। छह दिनों बाद, वे एक वटवृक्ष के नीचे भरद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन किए। वहाँ पर वही कथा हो रही थी, जो उन्होंने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। फिर वह काशी चले आए और प्रह्लाद घाट पर एक ब्राह्मण के घर में निवास किया।
वहां उनके अंदर कविता की शक्ति की एक अद्वितीय प्रेरणा हुई, और वे संस्कृत में पद्य रचना करने लगे, लेकिन जैसे ही वे दिन के पद्य रच देते, रात के साथ वे सब गायब हो जाते। यह घटना रोज़ घटित होने लगी। आठवें दिन, तुलसीदास जी को एक स्वप्न आया। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि ‘तुम अयोध्या चले जाओ और हिंदी में काव्य रचना करो। मेरी कृपा से तुम्हारी कविता सामवेद की तरह प्रमुख होगी।’ तुलसीदास जी ने उनकी आज्ञा का पालन किया और काशी से अयोध्या वापस आए।
उस साल, जब रामनवमी का दिन आया, तब समय कुछ ऐसा था, जैसे त्रेतायुग में भगवान राम का जन्म हुआ था। उस दिन, सुबह को श्री तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस की रचना की शुरुआत की। यह ग्रंथ दो वर्ष, सात महीने, और छब्बीस दिन में पूरा हुआ। मार्ग शीर्ष के शुक्ल पक्ष में, जब राम विवाह का दिन आया, तब सभी सात कांड पूरे हो गए। उसके बाद, भगवान के आदेश के अनुसार, तुलसीदासजी काशी चले आए।
वहां उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को “श्री रामचरितमानस” सुनाया। रात को पुस्तक को श्री विश्वनाथजी के मंदिर में रख दिया गया। सुबह, जब पंखुड़ी खुली, तो उस पर लिखा था – “सत्यं शिवं सुन्दरम।” और नीचे भगवान शंकर की मूर्ति थी। उस समय मौजूद लोगों ने “सत्यं शिवं सुन्दरम” की आवाज भी कानों से सुनी।
श्री राम-लक्ष्मण द्वारा तुलसीदासजी की कुटिया पर पहरा देना– गोस्वामीजी और श्रीरामचरितमानस की परीक्षा
काशी के पण्डितों को गोस्वामीजी से ईर्ष्या हो गयी थी। वे दल बाँध कर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उनके द्वारा रचित श्री रामचरितमानस को भी नष्ट कर देनेका प्रयत्न करने लगे। उन्होंने ग्रन्थ चुराने के लिए दो चोरों को भेजा। चोरों ने जाकर देखा कि दो वीर धनुष-बाण लिये तुलसीदास जी की कुटिया की रक्षा कर रहे हैं। वह सांवले और गोरे रंग का बहुत सुन्दर था। उसे देखकर चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई। उसी क्षण से उसने चोरी करना बंद कर दिया और प्रार्थना करना शुरू कर दिया।
‘इस काशी रूपी आनन्दवन में तुलसीदास चलता-फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी कविता रूपी मंजरी बड़ी ही सुन्दर है, जिसपर श्री राम रूपी भँवरा सदा मँडराया करता है।’ पंडिता को इससे भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक उपाय सोचा गया। उन्होंने भगवान विश्वनाथ के मंदिर में एक खास कदम उठाया। उन्होंने वेदों को सबसे ऊपर रखा, फिर उनके नीचे शास्त्र रखा, और शास्त्रों के नीचे पुराण रखा। सबके नीचे रामचरितमानस रखा गया। फिर मंदिर के दरवाजे को बंद कर दिया गया।
प्रातःकाल, जब मंदिर फिर से खोला गया, तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब पंडित लोग बड़े लज्जित हो गए। उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा माँगी और भक्ति भाव से उनके चरणों का पानी पिया।
तुलसीदास जी की श्री राम के प्रति अनन्य निष्ठा
गोस्वामीजी ने श्री वृन्दावन में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन किए, और उन्होंने प्रार्थना की – ‘प्रभो! आपकी छवि अत्यंत अद्भुत है, लेकिन मेरे सच्चे इष्टदेव भगवान श्री राम हैं।’ उस समय उनकी भक्ति भावना बहुत गहरी थी। भगवान श्री कृष्ण ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया और श्री राम के रूप में दर्शन दिए। उन्होंने अपने मन के अनुसार अपने प्रिय इष्टदेव की रूप-शोभा को देखा, जिससे उन्हें अत्यंत प्रियता मिली।
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