भगवान हरि विष्णु ने कैसे और क्यों लिया था छठा अवतार, भगवान परशुराम?
भगवान् श्री हरि विष्णु का छठा अवतार भगवान परशुराम जी है उनका जन्म वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया को हुआ था जिसे अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती के नाम से भी जाना जाता है भगवान परशुराम का मुख्य उदेश्य पृथ्वी से पाप का अंत करना और उनका संदेश धरती पर सत्य, धर्म, और न्याय की स्थापना करना था। भगवान परशुराम का उद्देश्य धरती पर आदिकाल से चला आ रहा है और उनका धरती पर अवतार होना राक्षसों खिलाफ धरती की रक्षा करना था।
भगवान परशुराम का मुख्य उदेश्य में से एक भगवान् श्री हरि विष्णु का 24वा अवतार कल्कि अवतार को शिक्षा प्रदान करना है। इनका जीवन कलयुग के अंत तक निर्धारित है।
जमदग्नि द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर देवराज इंद्र के वरदान से रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का जन्म हुआ। भगवान परशुराम की शिक्षा विश्वामित्र के आश्रम में हुई बालयकाल से ही वे पशु पक्षी की भाषा समझते थे इसे के साथ ही अनेक ऋषियों ने उन्हें अपने अश्त्र शस्त्र प्रदान किये ऋषि ऋषिक ने उन सारंग नामक धनुष प्रदान किया ब्रह्म ऋषि कश्यव से उन्हें अविनाशी वैष्णव मंत्र मिला। परशुराम जी कैलाश गिरी आश्रम में भगवान शिव से विद्या प्राप्त की शिव जी से उन्होंने अनेक शास्त्र प्राप्त किये।
एक बार भगवान परशुराम के पिता जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका से क्रोधित हो गए उनकी माँ नदी के किनारे पानी भरने गई थी वहीं गन्धर्व-गन्धर्विणी खेल रहे थे। और वहाँ पहुंचकर विहार (बगीचा) देखने लगी। उसके विहार में वक्त बिताने में उन्हें देर हो गई। ऋषि यमदग्नि ने ध्यान लगाकर जान लिया कि इस देरी का कारण क्या है। उन्होंने अपने पुत्रों को बुलाया और उन्हें आज्ञा दी कि माता को मार डालें। लेकिन उनके सभी सात पुत्र इस काम को करने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उनमें मातृ-स्नेह था।
तब आखिरकार आठवां पुत्र परशुराम को आज्ञा दी गई कि अपने सभी भाइयों के साथ माता का वध करें। परशुराम ने तुरंत ही अपने सभी भाइयों के सिर काट दिए। इसके बाद पिता जमदग्नि ने खुश होकर पुत्र परशुराम से वर माँगने के लिए कहा। परंतु परशुराम ने पिता जमदग्नि कहा कृपया आप मेरी माता और भाइयों को पुनः जीवित कर दीजिये| और मुझे वरदान दें युद्ध में मेरी बराबरी कोई नहीं कर सकता, मैं दीर्घायु होऊं। महान तपस्वी यमदग्नि ने परशुराम को सभी आशीर्वाद दिये।
हे हे वंश में राजा सहस्त्रार्जुन बड़ा ही प्रतापी राजा था उसने अपने गुरु दत्तात्रेय को प्रसन्न करके वरदान में एक हजार भुजाएं प्राप्त की थी। हज़ार भुजा के कारण उसे सहर्त्रबाहु भी कहा जाता है। उसे अपनी वैभव और शक्ति का बहुत घमंड था उसे कई सिद्धिं भी प्राप्त थी। उसके रथ और वर का प्रभाव बहुत शक्तिशाली था। उसके द्वारा देवता, यक्ष, और ऋषि, सबको कुचल दिया जाता था। उसके बल का घमण्ड इतना बढ़ गया कि वह समुद्र को भी अपने धनुष और बाण की मदद से आच्छादित कर दिया था।
एक बार राजा सहस्त्रार्जुन जमदग्नि जी के आश्रम में पहुंच गया। उस समय ऋषि जमदग्नि ने उसका बहुत आदर सत्कार किया ऋषि के पास कामधेनु गायें थी जो सभी इच्छाएं पूरी करनी वाली थी। उसी गाये के द्वारा ही सबकी अछि तरह से आओ भगत की। जब राजा सहस्त्रार्जुन कामधेनु को देखा तो उसका मन ललचा गया उसने ऋषि से कामधेनु को मांगा, लेकिन ऋषि ने इसे नहीं दिया और उसके प्राणों को भी छीन लिया। वो बल पूर्वक गायें को आश्रम से ले गया।
जब परशुराम जी को इस बात का पता लगा तब उन्होंने अपनी माँ को विलाप करते हुए पाया। परशुराम जी ने माँ से विलाप का कारण पूछा, और तब परशुराम ने तय किया कि वह पृथ्वी को निःक्षत्रिय बनाने का निश्चय किया है। कहा जाता है कि माँ के विलाप के समय, उन्होंने 21 बार अपनी छाती पीटी थी, इसलिए परशुराम ने पृथ्वी को इक्कीस बार निःक्षत्रिय बनाने का निश्चय किया।
इक्कीसवीं बार, परशुराम ने क्षत्रियों का नाश करके एक अश्वमेध यज्ञ किया और सारी पृथ्वी को कश्यप जी को दान में दे दी।
पृथ्वी क्षत्रियों से सर्वथा रहित न हो जाय, इसी भावना के साथ कश्यप जी ने उनसे कहा कि अब यह पृथ्वी हमारी हो चुकी है, इसलिए तुम दक्षिण समुद्र की ओर जाओ। परशुराम जी के पूर्वजों ने भी यह सोचकर परशुराम जी से इस कार्य को बंद करने की प्रार्थना की थी, और कश्यप जी ने भी उनसे पृथ्वी को छोड़ने की सलाह दी।
इसलिए, परशुराम जी दक्षिण समुद्र की ओर चले गए। समुद्र ने महेन्द्राचल पर उनके लिए एक स्थान उपलब्ध किया। श्री परशुराम जी एक अवतार हैं और वे कल्पांत तक बने रहते हैं। कुछ भाग्यशाली और पुण्यात्मा लोगों को उनके दर्शन भी हो जाते हैं।
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