महाराज परीक्षित् की कथा | राजा परीक्षित जी का पांडवो से क्या सम्बन्ध था-
महाराज परीक्षित् कथा – महाराज विराट की पुत्री उत्तरा, सुभद्राकुमार अभिमन्यु की पत्नी, गर्भवती थी। उनके गर्भ में कौरव और पाण्डव के वंश का एकमात्र वारिस था। अश्वत्थामा ने उस गर्भ में पल रहे बच्चे को नष्ट करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। डर के मारे उत्तरा भगवान श्री कृष्ण की शरण में गई। भगवान ने उसे सुरक्षित रखने के लिए उस बच्चे की रक्षा करने का आश्वासन दिया और स्वयं ही उत्तरा के गर्भ में पहुँच गए।
महाराज परीक्षित का जन्म-
एक गर्भस्थ शिशु ने एक बड़े दरावने समुंदर की तरह उमड़ते हुए कुछ खतरनाक चीज़ को देखा। उसने देखा कि उस खतरनाक चीज़ के पास आ रहा है और उसे नष्ट करने की कोशिश कर रहा है। इसी समय, वह शिशु ने अपने पास एक अद्वितीय और प्रकाशमय बच्चा भगवान को भी देखा। भगवान ने बच्चे को प्यार से देखा और उनके सुंदर दिव्य स्वरूप को देखा। उनके कांस्य मुकुट, कुण्डल, ब्रज की अद्वितीय चमक बहुत खास थी। उन्होंने अपने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए थे। उनकी गदा उल्का की तरह चारों ओर तेज़ी से घूम रही थी और वह उमड़ते हुए अस्त्र-तेज को नष्ट कर रहे थे।
एक छोटे से बच्चे ने दस महीने तक भगवान को देखा। वह सोचता रहा, “ये कौन है?” लेकिन जब उसका जन्म समय आया, भगवान अदृश्य हो गए। इसके परिणामस्वरूप, वह बच्चा मर गया, क्योंकि उसके जन्मकाल पर ब्रह्मास्त्र का प्रभाव हो गया था। तुरंत ही श्री कृष्ण चन्द्र ने उस शिशु को जीवित कर दिया, और उसे परीक्षित् के नाम से जाना जाता है।
जब परीक्षित् बड़े हुए, पाण्डवों ने इन्हें राज्य सौंप दिया और स्वयं हिमालय पर चले गये-
एक समय की बात है, जब पाण्डवों ने अपनी यात्रा पूरी की और राज्य को संभाला। परीक्षित् नामक युवा राजा ने सफलता के साथ राज्य का प्रशासन किया। एक दिन, वह दिग्विजय के लिए निकले तो उन्होंने एक गाय को देखा, जो उदासी से खड़ी थी। गाय के पास एक तोड़े हुए पैर थे, जिससे वह चल नहीं सकती थी। साथ ही, वहां एक शूद्र भी था, जो राजा की तरह मुकुट पहना हुआ था, लेकिन वह गाय और बैल को पीट रहा था।
परीक्षित् ने जाना कि गाय पृथ्वी देवी को प्रतिष्ठा देती है और वृषभ धर्म का प्रतीक है। उन्होंने समझा कि इस कालयुग में एक शूद्र ऐसा काम कर रहा है, जो धर्म के खिलाफ है। उस शूद्र को मारने के लिये तलवार खींच ली।
जब महराज परीक्षित ने कलयुग को रहने के लिए चार जगह बताई–
शूद्र ने अपना मुकुट हटा दिया और उसके पैरों पर प्रणाम किया। राजा ने कहा, “आप मेरे राज्य में नहीं रह सकते। जहाँ असत्य, दम्भ, और छल-कपट जैसे बुरे गुण हैं।” शूद्र ने विनम्रता से कहा, “महाराज, आप मेरे लिए सही मार्ग कौनसा है, यह आप ही तय करें। मैं कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूंगा।”
परीक्षित ने कलि के आवास के स्थान बताए, जो जुआ, शराब, स्त्री, और हिंसा के रूप में थे। इन स्थानों से कोई भी भलाई कार्यकारी व्यक्ति को बचना चाहिए। कलि ने फिर से कहा, “राजा, आपने मुझे केवल बुरे स्थान दिए हैं, कृपया मुझे कोई अच्छा स्थान दें।” तब राजा ने उसे सुवर्ण में रहने की अनुमति दी।
महाराज परीक्षित ने ऋषि के गले में मरा सांप डाल दिया-
एक दिन आखेट करते हुए परीक्षित् वन में भटक गये।, जहाँ उन्होंने भूख और प्यास का सामना किया। वे आश्रम में एक ऋषि के पास गए, लेकिन ऋषि ध्यान में थे और उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिली।
तभी कलि ने राजा को अपने प्रभाव में ले लिया, और राजा को लगा कि ऋषि उनके साथ अदर्श नहीं रख रहे हैं।
सभी इस समय पास में एक मृत्यु के सांप को देखे, और वह सांप उसके धनुष से निकाला और ऋषि के गले में डाला, इससे यह जानने के लिए कि क्या ऋषि वास्तव में ध्यान में हैं। फिर राजा और उसके सदस्य राजधानी वापस चले गए।
राजा परीक्षित को सात दिन में मरने का श्राप मिला-
ऋषि के तेजस्वी पुत्र ने बच्चों के साथ खेलते समय जब यह समाचार सुना।, तब शाप दे दिया- ‘इस दुष्ट राजा को आज के सातवें दिन नाग तक्षक के डसने से इसकी मौत होगी | उस समय उसने अपने सिर पर मगध राजा जरासंध का स्वर्ण मुकुट पहन रखा था, जिसे भीमसेन ने जीत लिया था। उसमें एक कली बन गई थी, इसी कारण उसके द्वारा यह अक्षम्य कृत्य किया गया। घर पहुंचकर मुकुट उतारने के बाद परीक्षित को याद आया कि ‘आज मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया है।’
वे पश्चात्ताप कर ही रहे थे, वे खुद को दुखी महसूस कर रहे थे, फिर उन्हें शाप की बात का पता चला। इससे राजा को बिल्कुल भी दुख नहीं हुआ। उन्होंने अपने पुत्र जनमेजय को राज्य संभालने का निर्णय लिया और गंगा किनारे बैठ गए। वह सात दिनों तक निर्जल व्रत करने का इरादा बनाया। इस बीच, बहुत सारे ऋषि-मुनि उनके पास आए।
शुकदेव जी ने सात दिनों में उन्हें पूरे श्री मद्भागवत का उपदेश किया-
परीक्षित् ने कहा, “ऋषिगण! मुझे एक शाप मिला, लेकिन यह शायद भगवान की कृपा थी। मैं विषय भोगों में अधिक आसक्त हो रहा था, लेकिन दयालु भगवान ने शाप के रूप में मुझे उनसे दूर कर दिया। अब कृपया आप मुझे भगवान के पावन चरित्र की कथा सुनाइए।” इसी समय, श्री शुकदेव जी वहाँ पहुँच गए और परीक्षित ने उनका पूजन किया।
जब परीक्षित् पूछा, तो शुकदेव जी ने सात दिनों में पूरे श्रीमद्भागवत का उपदेश दिया। आखिरकार, परीक्षित ने अपना मन भगवान में लगा दिया। तक्षक ने आकर उन्हें काट दिया और उनकी देह विष से विलीन हो गई; हालांकि वे तो पहले ही शरीर से ऊपर उठ चुके थे। उनको इस सब का पता तक नहीं चला। महाराज परीक्षित ने भगवन धाम को प्राप्त किया