भगवान् नृसिंह के भक्त प्रहलाद की कथा
प्रह्लाद कथा: जब भगवान वाराह ने पृथ्वी को रसातल से हिरण्याक्ष को मारकर छोडा लाये। इससे उसके बड़े भाई हिरण्यकशिपु बहुत रोषित हुए। वह तय किया कि वह अपने भाई का प्रतिशोध लेगा। हिरण्यकशिपु ने खुद को अजेय और अमर बनाने के लिए हिमालय पर जाकर तपस्या की। उसने हजारों वर्षों तक कठिन तप किया और ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने उसको एक वरदान दिया कि वह किसी भी ना प्राणी से, ना अस्त्र-शस्त्र से, ना रात में या दिन में, ना जमीन पर ना आकाश में मारा नहीं जा सकेगा।
जब हिरण्यकशिपु तपस्या करने जा रहे थे, तब देवताओं ने दैत्यों की राजधानी पर हमला किया। वहां कोई नेता नहीं था, इसलिए दैत्य हार कर भाग गए। देवताओं ने दैत्यों की राजधानी को लूट लिया। देवराज इंद्र ने हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधू को बंदी बना लिया और स्वर्ग में ले गए। रास्ते में देवर्षि नारद मिले। उन्होंने इंद्र से कहा, “तुम दैत्यराज की पतिव्रता पत्नी को मत ले जाओ।
इंद्र ने बताया कि ‘कयाधू गर्भवती है। जब उसकी संतान पैदा होगी, तो वह उसके पुत्र का वध करके उसे छोड़ देगा।’ देवर्षि ने कहा, ‘इस गर्भ में भगवान का श्रेष्ठ भक्त है, जिससे देवताओं को कोई भी डर नहीं है। उस भक्त को कोई नहीं हरा सकता।’ इंद्र ने देवर्षि की बात मान ली और ‘कयाधूके गर्भ में भगवान का श्रेष्ठ भक्त है’ सुनकर उसका सम्मान किया और अपने लोक की ओर चल दिए।
जब कायदू देवराज के बंधन से मुक्त हो गई, तो वह देवर्षि के आश्रम में रहने लगी। जब तक उसके पति तपस्या से वापस नहीं आए, तब उसके लिए कोई और सुरक्षित जगह नहीं थी। देवर्षि उसे अपनी पुत्री की तरह मानते थे और गर्भस्थ बच्चे को ध्यान देकर उसे भगवद्भक्ति का उपदेश देते थे। गर्भस्थ बच्चा प्रह्लाद ने उन उपदेशों को सुनकर सीख लिया। भगवान की कृपा से वह उपदेश कभी नहीं भूला।
जब हिरण्यकशिपु वरदान प्राप्त करके लौटे, तो उन्होंने सभी देवताओं को जीत लिया। सभी लोकपालों को हराकर वह उनकी सारी संपदाओं को अपने पास रख लिया। उनके लिए भगवान का विरोध था, इसलिए वे ऋषियों को परेशान करने लगे। वे यज्ञ भी रोक दिए और धर्म के खिलाफ हो गए। उनके गुरु शुक्राचार्य उस समय तपस्या में व्यस्त थे। उन्होंने अपने पुत्र प्रह्लाद को उनके गुरु के पुत्र षण्ड और अमर्क के पास शिक्षा प्राप्त करने भेज दिया। प्रह्लाद जी तब पांच साल के थे। एक दिन, प्रह्लाद जी घर वापस आए। उनकी माँ ने उन्हें खूबसूरत वस्त्रों से सजाया।
प्रह्लाद ने पिता के पास जाकर उनका प्रणाम किया। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाया। फिर उसने प्यार से पूछा, “बेटा, तुमने जो कुछ पढ़ा है, क्या तुम मुझे भी कुछ सिखा सकते हो?” प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “पिताजी, सभी लोग संसार में मोहित रहकर उद्विग्न रहते हैं। मेरा मानना है कि हमें अपने घरों को छोड़कर जलहीन और अंधकूप से मुक्त मनुष्य वन में जाकर श्री हरि की शरण लेनी चाहिए |
हिरण्यकशिपु जोर से हँस पड़ा। उन्हें लगा कि कोई दुश्मन उनके पुत्र प्रह्लाद को बुरा बना रहा है। उन्होंने अपने गुरु के पुत्रों से कहा, “तुम्हें प्रह्लाद को सुधारना होगा। उसे दैत्य कुल के उचित आदर्श, धर्म, और काम की शिक्षा दो।”
गुरु के पुत्र ने प्रह्लाद को अपने पास लाया और पूछा, “तुमने यह अज्ञान कहाँ से सीखा?”
प्रह्लाद जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “गुरुदेव! यह मैं हूँ, और यह आप हैं, यह दूसरा अज्ञान है।”
इस दुनिया में हम भगवान की माया के चक्कर में बह रहे हैं। भगवान दयालु होते हैं और जब वे किसी पर अपनी दया बरसाते हैं, तो वो इंसान के मन में बस जाते हैं। मेरे मन को उनकी अनंत कृपा से उन परम पुरुष की ओर खींच लिया। मेरे गुरु मेरे साथ बहुत मेहनत करते थे और मुझे ज्ञान का सही मार्ग दिखाते थे। उन्होंने मुझे शिक्षा दी, जैसे कि अर्थशास्त्र, दण्डनीति, और राजनीति के बारे में। मैं अपने गुरु की शिक्षा को ध्यान से सीखता था। वे कभी विद्या का मजाक नहीं उड़ाते थे, पर उनके मन में विद्या के प्रति हमेशा आस्था थी।
गुरु के पुत्रों ने जब उन्हें ठीक से पढ़ा लिया, तो वे दैत्यराज के पास गए। हिरण्यकशिपु ने अपने विनम्र पुत्र को गोद में बैठाकर पूछा, “बताओ, बेटा! तुम कैसे सोचते हो कि सबसे अच्छा ज्ञान होता है?”
प्रह्लाद जी ने कहा, “मेरे अनुसार, सर्वोत्तम ज्ञान वही है जो भगवान के गुणों और आचरणों का सुनना, उनकी लीलाओं और नामों का भजन, उनके श्री चरणों की सेवा, उनकी पूजा, उनकी स्तुति, उनके सामने दास बनना, उनके साथ दोस्ती, और उनके प्रति अपनी आत्मा को समर्पित करने का भाव – इन नौ भक्तियों का पालन करना होता है। मेरे अनुसार, इन नौ भक्तियों का अनुसरण करके ही सभी अध्ययन का सबसे उत्तम फल प्राप्त होता है।”
प्रह्लाद जी पिता हिरण्यकशिपु द्वारा तिरस्कृत
हिरण्यकशिपु बहुत क्रोधित हो गया। उन्होंने प्रह्लाद को बुरी तरह से डांटा और उसे ज़मीन पर गिरा दिया। उनके गुरुकुल के छात्रों ने बताया कि ‘हमने उसे गलत नहीं सिखाया। प्रह्लाद शांति से खड़े रहे, बिना किसी क्रोध के। वह अपने पिता से कहने लगे, ‘पिताजी, आपको गुस्सा नहीं आना चाहिए।
गुरु के पुत्रों का कोई दोष नहीं होता। वे लोग, जो अपने घर और परिवार के मोह में फंसे रहकर जिनकी बुद्धि प्रवृत्त हो गई है, वे विषयों को खाने के समान नरक में ले जाने वाले होते हैं। ये विषय वस्तुओं को बार-बार उपभोग करके उनमें लगे रहते हैं।
नन्हा सा बच्चा त्रिभुवन विजयी दैत्यराज हिरण्यकशिपु के सामने डरे बिना खड़ा था। इसके कारण दैत्यराज को बहुत गुस्सा आया। हिरण्यकशिपु ने अपने क्रूर सभासद्दों को आदेश दिया – ‘जाओ, तुरंत इस दुष्ट बच्चे को मार डालो।’ दैत्य बच्चे पर हमला करने के लिए तलवार, त्रिशूल, और अन्य शस्त्रों के साथ उसके पास गए और चिल्लाते पाँच वर्ष के बालक पर टूट पड़े। पर प्रह्लाद निर्भय खड़े रहे।
उन्हें सब जगह उनके दयालु प्रभु ही दिखाई देते थे। उन्हें किसी भी डर नहीं था। असुरों ने बड़े ताकतवर अस्त्र-शस्त्रों से बार-बार हमला किया, लेकिन प्रह्लाद को खरोच तक नहीं आई। उनके शरीर को छूते ही हथियार टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे।
जब हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद जी को मारने का निश्चय किया
अब हिरण्यकशिपु को बहुत हैरानी हुई। उसने तय कर लिया कि वह प्रह्लाद को मारेगा। वह कई तरह के उपाय करने लगा। एक बार, हाथी के सामने प्रह्लाद को डाल दिया, लेकिन हाथी ने प्रह्लाद को प्यार से उठा लिया और अपने सीर पर बैठा लिया। फिर, उसे एक कोठरी में बंद कर दिया गया और वहाँ भयंकर सर्पों को छोड़ दिया, लेकिन ये सर्प प्रह्लाद के पास पहुँचकर केंचुओं की तरह सीधे हो गए।
जब जंगली सिंह उनके सामने छोड़ा गया, तो वह पालतू कुत्ते के तरह पूँछ हिलाते हुए प्रह्लाद के पास बैठ गया। प्रह्लाद जी ने उसे खाने के लिए उग्र विष दिया, लेकिन उसके पास कोई प्रभाव नहीं हुआ, विष उनके पेट में चलकर अमृत बन गया।
अनेक दिनों तक भोजन नहीं मिला, जल की एक बूँद भी प्रह्लाद को नहीं मिली। लेकिन वे बिना खाए भी ठाने रहे। उनका स्वास्थ्य तक नहीं बिगड़ा, बल्कि वे और भी मजबूत हो रहे थे। फिर उन्हें ऊँचे पर्वत से गिराया गया और पत्थरों के साथ बंधकर समुद्र में फेंक दिया गया। दो बार वे सहायता से भरपूर भगवान का नाम गुणगान करने के बाद नगर में लौट आए। बहुत सारे लकड़ियों का पर्वत एक साथ जुटाया गया।
प्रह्लाद जी और होलिका की कथा (होली की कथा)
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका ने तप करके एक विशेष वस्त्र पाया था। वह वस्त्र अग्नि में नहीं जलता था। होलिका ने उस वस्त्र को पहनकर प्रह्लाद जी को गोद में लिया और एक लकड़ियों बड़े ढेर पर बैठ गई। फिर उस ढेर में आग लगा दी गई। होलिका जलकर खाक हो गई, लेकिन वस्त्र अचम्भे से उड़ गया। कैसे यह हुआ, यह किसी को नहीं पता था, लेकिन प्रह्लाद अग्नि में बैठे रहकर अपने पिता को समझाते रहे कि “पिताजी!”।
भगवान से नफरत करना बंद करो। भगवान् नाम का प्रभाव देखो कि यह अग्नि मुझे बड़ी शीतल लगती है। तुम भी भगवान् श्री हरि का नाम लो और संसार के सारे तापों से मुक्त हो जाओ। राक्षस राजा हिरण्यकशिपु के कई राक्षसों ने माया के साथ प्रयोग किये; लेकिन प्रह्लाद के सामने माया की एक न चलती है. जैसे ही वे अपनी आँखें ऊपर उठाते हैं, मायावी दृश्य स्वतः ही गायब हो जाते हैं।
एक बार, दैत्यराज को डर लगा कि कहीं उसके मृत्यु का कारण न बन जाए, क्योंकि वह अपने दयामय प्रभुको सब जगह प्रत्यक्ष देख सकता था, और उसकी तनिक सी भी हानि को वे प्रभु से कैसे रोक सकते हैं!
इसके बाद, दैत्यराज ने प्रह्लाद को फिर गुरु के पास भेज दिया और उनकी आशा थी कि गुरुपुत्रों के शिक्षा और संग के प्रभाव से प्रह्लाद सुधर जाएंगे। प्रह्लाद गुरु के आदर्श में विद्या पढ़ते थे, लेकिन उनका मन वहाँ पर नहीं था।
जब दोनों गुरु आश्रम के काम में शामिल हो जाते, तो प्रह्लाद जी अपने दोस्त बच्चों को बुला लेते। वे राजकुमार थे और बहुत ही नम्र थे। इसलिए, सब बच्चे खेलने की बजाय उनके पास जाकर एक साथ आ जाते। प्रह्लाद जी उन बच्चों से प्यार से कहते थे, “दोस्तों, हमारा जीवन व्यर्थ नहीं जाना चाहिए।”
अगर हम इस जीवन में भगवान को नहीं पा पाते हैं, तो हमें बड़ा नुकसान होता है। घर, परिवार, संबंध, धन, और अन्य सारी चीजें जो हमारे पास हैं, वे सभी दुःख देने वाली हैं। हम इनके मोह में डूबकर दुखी होते हैं और इससे हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है। एक शांत और सुखमय जीवन पाने के लिए हमें मन को इन इंद्रियों के प्रकारिक विषयों से दूर रखना चाहिए। भगवान को पाने के लिए हमें उनकी प्राप्ति के लिए कुमारावस्था में ही साधना करनी चाहिए। बड़े होने पर हमें स्त्री, पुत्र, धन आदि का मोह मन को बाँध सकता है और इससे हमारी आध्यात्मिक ग्रोथ में रुकावट आ सकती है
ईश्वर को पाने के लिए बड़ा प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है, सभी जीवों में वे ही ईश्वर हैं, इसलिए किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। दिल में हमेशा ईश्वर में ही रहना चाहिए।
हिरण्यकशिपु का वध भगवान् नृसिंह खम्भे फाड़कर प्रकट हुए
हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को सभा में बुलाया और गुस्से में पूछा, “कहा है तेरा भगवान् क्या तुम इस खम्भे में भी है?” हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद ने कहा हाँ पिता जी वो इस खम्बे में भी है। उसने सिंहासन से उठकर बड़े जोर से एक घूँसा खम्भे पर मारा। उस खम्बे एक महाभयंकर दहाड़ उठी, जैसे सारा ब्रह्माण्ड फट गया हो। सभी लोग भयभीत हो गए। हिरण्यकशिपु भी यहां-वहां देखने लगा। उसने देखा कि खम्भा बीच से फट गया है और वहां से मनुष्य के शरीर और सिंह के मुख की अद्भुत भयंकर आकृति प्रकट हो रही थी।
भगवान नृसिंह बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे थे और वे गर्जने लगे। उन्होंने दैत्य राजा हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया और उन्होंने उसके पास जाकर अपने नखों से उसकी पेट को फाड़ दिया। दैत्यराज हिरण्यकशिपु मारा गया, लेकिन भगवान नृसिंह का क्रोध अब भी शांत नहीं हुआ। वे बार-बार गरज रहे थे। इसके बाद, ब्रह्मा, शंकर और अन्य देवताएं उनकी स्तुति करने लगी।
माता लक्ष्मी ने भगवान के विकराल क्रुद्ध रूप को देखकर बहुत डर गयी, लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हुई कि वे उनके पास जाएं। आखिरकार, ब्रह्माजी ने प्रह्लाद को भगवान नृसिंह को शान्त करने के लिए उनके पास भेज दिया। प्रह्लाद निर्भय होकर भगवान के पास गया और उनके चरणों में गिर गया। भगवान ने स्नेह से उसे उठाया और अपनी गोद में बैठा लिया। वे बार-बार प्रह्लाद को चाटते हुए कहने लगे, “बेटा प्रह्लाद, मुझे आने में बहुत देर हो गई। तुझे बहुत कष्ट सहना पड़ा। कृपया मुझे क्षमा कर दो।”
प्रह्लाद जी का गला भर आया। आज त्रिभुवन के स्वामी उनके सिर पर अपना आशीर्वाद देकर उन्हें प्यार से छू रहे थे। प्रह्लाद जी धीरे से खड़े हुए। उन्होंने अपने हाथ जोड़कर भगवान की प्रशंसा की। वे बहुत भक्तिभाव से भगवान की महिमा गाई। आखिरकार, भगवान ने उनसे एक वरदान मांगने के लिए कहा। प्रह्लाद जी ने कहा – “प्रभु”! आप वरदान देने की बात करके मेरी परीक्षा क्यों लेते हैं?
वह जो अपने स्वामी से सेवा का पुरस्कार चाहता है, वह असल में एक व्यापारी है, न केवल सेवक। मुझे भी किसी पुरस्कार की कोई इच्छा नहीं है। मेरे नाथ! आपसे मेरी यही बिनती है कि आप मुझे शुद्ध आशीर्वाद दें, ताकि मेरे दिल में कोई इच्छा कभी न उठे।
प्रह्लाद जी ने भगवान् से प्रार्थना की-‘मेरे पिता आपकी और आपके भक्त की (मेरी) निन्दा करते थे, वे पाप से छूट जायँ
भगवान ने कहा, “प्रह्लाद! जिस परिवार में मेरा भक्त होता है, वह पूरे परिवार को पवित्र बना देता है। तुम मेरे भक्त के पुत्र होने के कारण, तुम्हारा परिवार परम पवित्र हो गया है। तुम्हारे पिता ने इक्कीस पीढ़ियों के साथ पवित्रता का पालन किया है। मेरे भक्त का जन्म होने वाले स्थान को धन्य माना जाता है, और वह स्थान पृथ्वी को तीर्थ बना देता है, जब मेरा भक्त वहाँ अपने चरण रखता है।”
भगवान ने वचन दिया कि ‘अब मैं प्रह्लाद की संतानों का वध नहीं करूँगा।’ कल्पपर्यन्त के लिये प्रह्लाद जी अमर हुए। वे भक्तराज अपने महाभाग्यशाली पौत्र बलि के साथ अब भी सुतल में भगवान् की पूजा करते हैं और हमेशा भगवान के प्रति भक्ति रखते हैं!
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