भक्त श्री प्रियव्रत जी- श्री हरि ध्याननिष्ठ भक्त चरित्र | Shri Priyavrat Ji – Shri Hari’s devoted devotee character (2023)

श्री प्रियव्रत जी कौन थे ?

स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत जी जन्म से ही भगवान्‌ के परम भक्त थे। उन्हें भगवान्‌ के गुण-गान, उन उत्तम श्लोक के मंगल चरित-श्रवण को छोड़कर कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। देवर्षि नारद की कृपा से उन परम भागवत ने परमार्थतत्त्व को जान लिया था। वे देवर्षि के समीप गन्ध मादन पर्वत पर रहकर निरन्तर भगवान्‌ का चिन्तन करते और नारद जी से भगवान्‌ की परम पावन लीला का श्रवण करते।

जब मनु जी ब्रह्मसत्र की दीक्षा लेने लगे, तब उन्होंने प्रियव्रत को राज्य करने के लिये बुलाया; किंतु जिनका चित्त भगवान् वासुदेव में ही सब ओर से लगा था, उन प्रियव्रत जी को राज्य के सुख-भोग अच्छे न लगे। उन्होंने संसार के विषयों को विष के समान समझ लिया था। अतएव राज्य संचालन उन्होंने अस्वीकार कर दिया।

स्वयं भगवान् ब्रह्मा प्रियव्रत जी समझाने के लिये ब्रह्मलोक से वहाँ पधारे-

प्रियव्रत ने जब राज्य करना अस्वीकार कर दिया, तब स्वयं भगवान् ब्रह्मा उन्हें समझाने के लिये ब्रह्मलोक से वहाँ पधारे। आकाश से हंसवाहन सृष्टिकर्ता को आते देख नारद जी और प्रियव्रत खड़े हो गये। उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रणाम करके उनका पूजन किया।

ब्रह्मा जी ने कहा-‘बेटा प्रियव्रत ! अप्रमेय, सर्वेश्वर प्रभु ने जो कर्तव्य तुम्हें दिया है, उसमें तुम्हें दोष दृष्टि नहीं करनी चाहिये। मैं, शंकर जी, महर्षिगण विवश होकर उन प्रभु के आदेश का पालन करते हैं। कोई भी देहधारी तपस्या, विद्या, योगबल, अर्थ या धर्म के द्वारा स्वयं या दूसरों की सहायता से भी उन सर्वसमर्थ के किये विधान को अन्यथा नहीं कर सकता। उन प्रभु को प्रसन्न करना ही तुम्हारा भी उद्देश्य है, अतः तुम्हें उनके विधान से प्राप्त कर्तव्य का पालन करना चाहिये। देखो, जो मुक्त पुरुष हैं, उन्हें भी अभिमान शून्य होकर प्रारब्ध शेष रहने तक देह धारण करना ही पड़ता है।

वे भी प्रारब्ध-भोग भोगते ही हैं; किंतु जैसे स्वप्न में अनुभव किये भोग जाग जाने वाले को बाधित नहीं करते, वैसे ही वे प्रारब्धके भोग मुक्त पुरुषों को दूसरा शरीर नहीं दे पाते। रही घर में रहने और वन में तप करने की बात, सो जो प्रमत्त है, उसके लिये वन में भी पतन का भय है; क्योंकि उसके चित्त में काम-क्रोध, लोभ- मोह, मद-मत्सर- ये छः विकार लगे हैं। किंतु जो सावधान है, जितेन्द्रिय है, आत्म चिन्तन में लगा है, भगवदाश्रयी है, उसकी गृहस्थाश्रम क्या हानि कर सकता है

जो कामादि छः रिपुओं को जीतना चाहता हो, उसे पहले गृहस्थाश्रम में रहकर ही इनको जीत लेना चाहिये; क्योंकि गृहस्थाश्रम के भोगों को भोगता हुआ किले में सुरक्षित राजा के समान शत्रु रूप इन विकारों को वह सरलता से जीत सकता है।

तुम तो कमलनाभ नारायण के चरण कमल रूपी गढ़ का आश्रय लेकर सभी विकारों को जीत चुके हो; अतः अब भगवान्‌ के दिये हुए भोगों को भोगो और आसक्ति रहित होकर प्रजाका पालन करो। प्रियव्रत ने अपने से श्रेष्ठ ब्रह्मा जी की आज्ञा स्वीकार की। लोकस्रष्टा उनसे सत्कृत होकर अपने लोक को चले गये।

घर छोड़ कर बाहर जाने से अधिक भजन होगा-यह भी मन का एक भ्रम ही है

प्रियव्रत नगर में आये। ब्रह्मा जी के इस उपदेश में आज के साधकों के लिये बहुत ही महत्त्व की बातें बतायी गयी हैं। किसी भी उत्तेजना या दुःख के कारण घर का त्याग करना कल्याणकारी नहीं है। घर छोड़ कर बाहर जाने से अधिक भजन होगा-यह भी मन का एक भ्रम ही है। जब तक मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर हैं, तब तक घर छोड़ देने पर पतन का भय ही अधिक है। इन दोषों पर घर रहकर जितनी सरलता से विजय पायी जा सकती है, उतनी बाहर नहीं।

भगवान्‌ के चरणों का आश्रय लेकर, भगवन्नाम का जप करते हुए, कर्तव्य का पालन करते हुए घर रहकर ही इन दोषों को जीतना चाहिये। इन शत्रुओं से बचे रहने के लिये घर सुरक्षित किला है। जो घर में इन दोषों से घबराता है, उसे जानना चाहिये कि बाहर उसकी कठिनाई और बढ़ जायगी, दोषों को बढ़ने के लिये बाहर अधिक अवसर मिलेगा।

प्रियव्रत जी का विवाह किस से होआ ?

ब्रह्माजी की आज्ञा मानकर प्रियव्रत राजधानी में आये। उन्होंने राज्य और गृहस्थाश्रम स्वीकार किया। प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से उन्होंने विवाह किया। उनके दस पुत्र और एक कन्या हुई। प्रियव्रत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी थे। उन्हें यह अच्छा न लगा कि आधी पृथ्वी पर एक समय दिन और आधी पर रात्रि रहे। ‘मैं रात्रि को भी दिन बना दूँगा।’ यह सोचकर अपने ज्योतिर्मय दिव्य रथ पर बैठकर वे सूर्य-रथ की गति के समान ही वेग से रात्रि वाले भाग में यात्रा करने लगे।

प्रियव्रत जी सात समुद्र बन गये-

इस प्रकार सात दिन-रात्रि वे घूमते रहे और उतने काल उन्होंने पूरे भूमण्डल पर दिन के समान प्रकाश बनाये रखा। ब्रह्मा जी ने इस कार्य से उन्हें रोका। उनके रथ के पहियों से ही सात समुद्र बन गये। उन समुद्रों से घिरे एक-एक द्वीप का अधिपति उन्होंने अपने एक- एक पुत्र को बनाया। आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्र-ये उनके सात पुत्र क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप तथा पुष्करद्वीप के स्वामी हुए। कवि, महावीर और सवन-ये तीन पुत्र आजन्म ब्रह्मचारी, आत्मवेत्ता परमहंस हो गये।

भगवान्‌ के परम भक्त प्रियव्रत –

इतना बड़ा अखण्ड साम्राज्य, पूरे भूमण्डल का ऐश्वर्य, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि समस्त सुख और स्वर्गादि लोकों के लोकपाल भी उनके मित्र ही थे; किंतु भगवान्‌ के परम भक्त प्रियव्रत को इन सब का तनिक भी मोह नहीं था। उन्हें लगता था कि व्यर्थ ही मैंने यह प्रपंच बढ़ाया। वे अपने को गृहासक्त तथा पत्नी में कामासक्त मानकर बराबर धिक्कारते थे। पुत्रों को राज्य देकर वे सम्पूर्ण ऐश्वर्य का त्याग करके फिर गन्धमादन पर नारद जी के पास चले गये।

भगवान्‌ का निरन्तर चिन्तन करना उन्होंने अपना एकमात्र व्रत बना लिया। कर्म के द्वारा, पुण्य के द्वारा और योग के द्वारा मिलने वाला पृथ्वी और स्वर्गादि लोकों का समस्त भोग उन्हें प्राप्त था; किंतु उन महाभाग ने उसे नरक के भोग के समान मान कर त्याग दिया। परमपुरुष भगवान्‌ के अनन्त सुधा-सिन्धु में जिनका चित्त निमग्न हो गया है, वे धन्यभाग्य भगवद्भक्त ही ऐसा त्याग कर सकते हैं!