सन्त श्री रैदास जी का संक्षेप परिचय:-
श्री रैदास जी को संतशिरोमणि माना जाता है जिन्होंने सदाचार को अपना धर्म माना था और वेद-शास्त्रों के अनुसार चलने का पालन किया था। उन्होंने सत और असत का विवरण करने वाले परमहंसों का भाव अपने हृदय में धारण किया और सार-असार का निर्णय किया। उन्होंने भगवत की कृपा से परम गति प्राप्त की और लोगों को ब्राह्मण जाति के विश्वास का साबित करने के लिए राजसिंहासन पर बैठकर अपने पूर्वजन्म का यज्ञोपवीत दिखाया। उन्होंने ऊँचे वर्ण और आश्रम के अभिमान को त्यागकर महान पुरुषों की चरण-धूलि की वंदना की और संदेहों को खंडन करने में बहुत ही चतुर थे। श्रीरैदासजी की निर्मल वाणी संदेहों के ग्रंथों को खोलने में सक्षम है।
श्री रैदास जी का सन्त प्रेम और भगवान् से बात-
श्री रैदास जी महान संत थे, जिन्हें भगवान के भक्तों से बड़ा प्यार था। वे संत-सेवा में धन का सदुपयोग करते थे। इस आचरण से उनके पिता जी को खेद हुआ और उन्होंने रैदास जी को घर से अलग कर दिया और पीछे की ज़मीन दे दी। घर में बहुत सारा धन-माल था, लेकिन पिता जी ने इसे अलग करते समय एक भी कण नहीं दिया। इससे रैदास जी और उनकी पत्नी को बड़ा खुशी हुई, क्योंकि उन्होंने भगवान पर पूरी श्रद्धा रखी थी।
रैदास जी जूतियों को गांठते थे और पक्का चमड़ा लाकर जूते बनाते थे। वे साधु-संतों को उन जूतों का पहनाते थे। वे अपनी सेवा को गुप्त रखकर करते थे, और एक छप्पर में भगवान की सेवा करने के लिए एक ख़ास स्थान बना रखते थे। इस छप्पर में संत भी आकर निवास करते थे, लेकिन वे खुद खुले में रहते थे। वे अपनी मजदूरी से कमाए धन को अतिथियों में बाँटकर खाते थे। इस तरह के दैनिक जीवनचर्या से वे अपने जीवन को गुजारते थे।
एक दिन, भगवान भक्त के रूप में आकर श्री रैदास जी के पास गए और एक पारसमणि को देकर कहा, “इसे संभालो।” श्री रैदास जी ने उत्तर दिया, “मेरे पास तो मेरा धन श्री राम है। इस पत्थर से मेरे काम कुछ नहीं होगा। मुझे धन और संपत्ति की चिंता नहीं है। मेरी इच्छा है कि मैं संतों और भगवान की सेवा में अपने शरीर को न्यौछावर कर दूँ।”
सन्त भगवान ने पारस को लोहे की राँपी से छूने से सोने का रूप दिखाया। फिर पारस को श्री रैदास जी को दिया और कहा, “इसे रखो और जब आवश्यकता हो, तो इसका उपयोग कर सकते हो।”
तब श्री रैदास जी ने कहा – अगर आप विश्वास नहीं करते हैं, तो उसे ठाकुर जी के छप्पर में रख दें, और जब आपको इच्छा हो, तो आप उसे निकालकर ले जाएं। साधुवेष धारी भगवान श्यामसुन्दर तेरह महीने बीत जाने के बाद फिर श्री रैदास जी उनके पास आए और प्यार से पूछा – “कहिए, रैदासजी! पारस का प्रयोग करके आपने क्या सेवा की?” श्री रैदास जी ने कहा- जहाँ आप रख गये थे, वहाँ ही रखा होगा। आप उसे ले लीजिये।
श्री रैदास जी की ऐसी बात सुनकर पारस को लेकर वे चले गये। अब भगवान् ने एक नयी लीला रची। प्रातः काल, जब श्री रैदास जी ठाकुर-सेवा करने जाते, तो उन्हें नित्य पाँच मुहरें मिलतीं। वे बिच्छू की तरह चिमटे से पकड़कर उन्हें गंगा में डाल जाते थे। अब रैदास जी को ठाकुर जी की सेवा से भी भय लगने लगा। तब भगवान् ने एक स्वप्न में श्री रैदास जी से कहा, “तुम अपना हठ छोड़ दो और मैं जैसा चाहता हूँ, वैसा करो।
श्री रैदास जी ने भगवान की आज्ञा मान ली और प्राप्त मुहरों से नई जगह पर एक विशाल संत-निवास और भगवान का प्रभावशाली मंदिर बनवाया। वहां दिन-रात भगवान की सेवा और भजन-कीर्तन किया जाता था, और ऐसा लगता था कि भगवान की भक्ति वहीं रम गई है। इसी समय रघुवंशविभूषण ने ब्राह्मणों के दिलों में प्रेरणा दी कि वे रैदास की सेवा का विरोध करें और उसे बंद करवा दें।
तब बहुत-से ब्राह्मण एक साथ आकर राजा के सभा में गए और श्री रैदास जी पर इस आरोप के साथ गालियाँ देते हुए बोले कि वे शूद्र होने के बावजूद पूजा कर रहे हैं। यह न्याय नहीं है, और इसे रोका जाना चाहिए, अन्यथा आपके राज्य को खतरा हो सकता है। इस पर राजा ने श्री रैदास जी को बुलवाया और उनके चमत्कारों को देखकर न्याय किया, और श्री रैदास जी को सेवक के अधिकार प्रदान किए।
चित्तौड़ की रानी द्वारा इनका शिष्य बनना-
चित्तौड़ नगर में झाली नामक एक रानी थी। उन्होंने किसी गुरु से मन्त्र नहीं प्राप्त किया था। एक दिन, वह काशी गई और श्री रैदास जी के उपदेश सुनकर उनकी शिष्य बन गई।
उसके साथ कई ब्राह्मण भी थे, लेकिन उनको यह सुनकर की रानी शिष्य बन गई, उनमें द्वेष उत्पन्न हुआ। वे सभी लोग एक साथ राजा के पास गए और यह कहा: “रैदास को दीक्षा देने का अधिकार नहीं है, उन्होंने अनधिकार चेष्टा की है। कृपया न्याय करें।
तब राजा ने रैदास जी को बुलवाया और भगवान की मूर्ति को सिंहासन पर विराजमान कराकर कहा, ‘बुलाने से भगवान जिसके पास चले जाएंगे, वही उनकी सेवा का और उनके मंत्र का अधिकारी समझा जायेगा। ब्राह्मणों ने सस्वर वेदपाठ करके भगवान को आवाहन किया, लेकिन भगवान उनके पास नहीं गए। फिर श्री रैदास जी ने पतित पावन नाम को आज प्रकट किया, इस पद को गाया। तब भगवान श्री रैदास जी की गोदी में आकर विराजमान हो गए। झाली रानी के बुलाने पर श्री रैदास जी चित्तौड़ को पधारे।
रानी ने बड़ा भारी स्वागत किया और बहुत सारा धन और वस्त्र दिए। साधुओं के पास बड़ा भंडार था। इस खबर को सुनकर कई ब्राह्मण भी आए। उन्होंने भंडार में भोजन करने से इंकार किया, इसलिए उन्हें सीधे-सादे खाने के लिए भोजन दिया गया। ब्राह्मणों ने रसोई की ओर देखा, और जब खाने के लिए बैठे, तो वहां उन्हें एक पंक्ति में दो-दो ब्राह्मणों के बीच में एक रैदास बैठा हुआ दिखाई दिया।
उन्होंने वह चमत्कार देखकर आँखें खुल गई। इसके बाद वे दीनवाणी से अपराध क्षमा करने की प्रार्थना करने लगे। बहुत सारे लोग उनके शिष्य बन गए, इनमें लाखों ब्राह्मण भी थे। श्री रैदास जी ने अपने शरीर की त्वचा को चीरकर सोने का यज्ञोपवीत सबको दिखाया। इससे सबको यकीन हो गया कि वे दिव्य पुरुष हैं।
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