श्री जनक जी – Raja Janak Ji
निमिवंश में होने वाले सभी राजाओं को ‘जनक’ कहा जाता था, लेकिन सीता जी के पिता के रूप में महाराज जनक बहुत प्रसिद्ध थे। एक बार मिथिला देश में बड़ा सूख पड़ा, और ज्ञानी लोगों ने निर्णय किया कि महाराज जनक को खुद हल को जमीन जोतकर एक यज्ञ करना चाहिए ताकि वर्षा हो सके। महाराज यज्ञ की तैयारी कर रहे थे, लेकिन जब हल की नोक जमीन में चुभ गई, तो वहां से एक कन्या निकलकर आई। वही कन्या महारानी सीता जी थीं। महाराज जनक ने उन्हें अपने घर ले आया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया, उनकी देखभाल की।
छोटी सी श्री जानकी जी ने भगवान् शिव जी प्रलयंकारी विशाल धनुष को एक हाथ उठा लिया |
वे पूर्ण ब्रह्मज्ञानी थे, और वे ‘मैं-मेरे’ के बंधन से मुक्त थे। वे हमेशा ब्रह्म के रूप में बने रहते थे और फिर भी वे प्रजाओं की देखभाल करने का कार्य ठीक से करते थे। बड़े-बड़े ऋषि मुनि इनके पास ज्ञान चर्चा और ब्रह्मज्ञान सीखने के लिए आते थे। ये भगवान शिव के विशेष भक्त थे। एक समय, शिवजी ने अपना महादेवी धनुष उन्हें एक धरोहर के रूप में सौंप दिया था,
वह उनके घर में रखा था और उसकी पूजा होती थी। कहा जाता है कि एक दिन घर को सजाते समय श्री जानकी जी ने एक हाथ में वह विशाल धनुष उठा लिया और फिर जमीन पर रख दिया। उस समय महाराज ने प्रतिज्ञा की कि जो कोई इस महाद्धनुष को उठा लेगा, उसी के साथ में सीता जी का विवाह कराऊंगा।
महर्षि विश्वामित्र जी के साथ श्री राम-लखन मिथिलापुरी पधारे |
महर्षि विश्वामित्र जी के साथ, श्री राम और लखन मिथिलापुरी आए। जब महाराज जनक ने यह सुना, तो वे अपने मंत्री और पुरोहितों के साथ आकर ऋषि का सत्कार करने आए। वे विधिवत ऋषि की पूजा की और राम-लखन से कुशल-क्षेम की जानकारी ली। मन प्रेम में मगन है, शरीर की सुध-बुध नहीं रही,
महाराज जनक ने बड़े प्रयास के बाद अपने आप को संभाला और ऋषि विश्वामित्र के सामने आकर कहा, “रघुकुल के महान दसरथ के जनक श्रीराम को बुलाइए।”
जब किसी राजा से धनुष टस से मस नहीं हुआ, तब
श्री राम जी ने धनुष तोड़ा |
श्री राम जी ने धनुष तोड़ दिया। इसे सुनकर परशुराम जी आये। वे बहुत उछले-कूदे, बड़ी-बड़ी बातें कही किंतु जनक जी एकदम तटस्थ ही बने रहे। वे समझते थे कि जिन्होंने इतने बड़े शिवधनुष को तोड़ दिया है, वे स्वयं इनसे समझ-बूझ लेंगे, हमें बीच में पड़ने की क्या जरूरत है।
श्री सियाराम जी का वनवास |
जब श्री राम वनवास के लिए जाते हैं और भरत उन्हें अपने साथ लौटने के लिए चित्रकूट जाते हैं, तो वहां वे जनक जी से मिलते हैं। उनका मूढ़ दृष्टिकोण बड़ा प्रशंसनीय होता है। वे स्पष्ट रूप से नहीं कह सकते कि श्री राम अयोध्या वापस लौटेंगे, क्योंकि लोग कह सकते हैं कि जनक ने अपने दामाद का समर्थन किया और वे भरत के प्यार को देखकर भी नहीं कह सकते कि भरत की मांग न मानी जाए।
इसलिए वह अपनी रानी से भरत जी को बहुत प्रशंसा करते थे और अंत में उन्होंने यह कहा कि हमें उनके बीच में नहीं बोलना चाहिए, उन्होंने जो कुछ भी करेंगे, वही सही होगा। जब महाराज ने अपनी पुत्री सीता को वनवासी रूप में देखा, तो उनका मन दुखी हो गया, और उसका वर्णन असंभाव है। उनके दिल में जो भावना थी, वह कथने लायक नहीं है। वहाँ जहाँ “सिय-रघुबर” का प्यार है, वहाँ मोह कैसे हो सकता है? ब्रह्मज्ञानी जनक जी के दिल में यह प्यार हमेशा बरकरार था! उन्हें धन्यवाद!
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