श्री जाम्बवान् जी का चरित्र- भगवान् की सेवा में अवतीर्ण | Shri Jambavan- A Great Warrior Who Devoted His Strength to the Service of God (2023)

ऋक्षराज जाम्बवान्: भगवान् के अंशावतार-

ऋक्षराज जाम्बवान् ब्रह्मा के एक अंश थे। उनका मुख्य कार्य ब्रह्मा की सृष्टि करने में मदद करना था, लेकिन वे दूसरे रूप में भगवान की आराधना और सेवा करने के लिए भी जाने जाते थे।

जब वे जाम्बवान के रूप में अवतरित हुए, तो उन्होंने रावण को एक वर दिया था कि उसकी मृत्यु केवल नरवानरों से ही होगी, और देवताओं या अन्य किसी से नहीं। इसके बाद, वे जाम्बवान के रूप में रहकर भगवान राम की सहायता करने आए, क्योंकि अब वे रावण के वर को भंग करने के लिए उपयुक्त थे।

जब भगवान् विष्णु ने वामन अवतार धारण किया और बलि की यज्ञशाला में गए, तो उन्होंने संकल्प बनाया और फिर अपना विराट रूप दिखाया। उन्होंने अपनी अद्भुत शक्ति का प्रदर्शन किया और त्रिलोक को नापते हुए सात प्रदक्षिणा की। उनकी इस अत्यधिक शक्ति और साहस को देखकर मुनि और देवता उनकी प्रशंसा करने लगे। राम अवतार में, वे भगवान के प्रमुख मंत्री की तरह थे।

हनुमान जी और जाम्बवान् की युद्ध कला: सीता के अन्वेषण से लंका तक-

सीता के अन्वेषण में हनुमान जी साथ थे और जब समुंदर पार करने की हिम्मत नहीं हुई, तो उन्होंने हनुमान जी को उनकी शक्तियों का स्मरण कराया और लंका में क्या करना चाहिए, इस पर सहमति दी। समय-समय पर सलाह देने के साथ ही, उन्होंने लड़ाई भी लड़ी और लंका के युद्ध में बड़े-बड़े राक्षसों को पराजित किया।

भगवान राम के पास इनका बहुत प्यार था, और जब वे अयोध्या पहुँचे, तो इन्होंने वहाँ से वापस नहीं जाने का निर्णय किया। उन्होंने कहा कि वे भगवान राम के चरणों में ही रहना चाहते हैं और उनके चरणों को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। जब तक भगवान राम द्वापर में दर्शन नहीं देंगे, तब तक वे अपने हठ पर अड़े रहेंगे। आखिरकार, उन्होंने भगवान की आज्ञा का पालन करके अपने घर वापस आए और नित्य भगवान की प्रतीक्षा में उनकी ध्यान और स्मरण में अपना जीवन बिताने लगे।

द्वापर युग में -“श्री जाम्बवान् और भगवान कृष्ण का मिलान”

द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। उस समय द्वारका नामक स्थान पर एक यदु वंशी नामक सत्राजित थे, जिन्होंने सूर्य देव की पूजा करके स्यमन्तक मणि प्राप्त किया। एक दिन स्यमन्तक मणि को पहन कर उसका छोटा भाई प्रसेन जंगल में गया था, और वहाँ एक सिंह ने उसे मार डाला और मणि को छीन लिया।

उसके बाद, एक यदु वंशी राजा जाम्बवान ने सिंह को मारकर वह मणि ले लिया। इसके परिणामस्वरूप, द्वारका में फैलने लगा कि भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसेन को मारकर मणि को प्राप्त किया होगा।

यह बात भगवान ने भी सुनी। यद्यपि लोग इसे कलंक परिमार्जन और मणि के खोज के लिए यात्रा की तरह देख रहे थे, लेकिन वास्तव में इसका उद्देश्य था कि वे अपने पुराने भक्त जाम्बवान को दर्शन देकर उनका कृतज्ञता बढ़ाना चाहते थे। जाम्बवान ने भगवान की प्रतीक्षा में बहुत समय बिताया था, और उनके दर्शन से वे खुश हुए।

इसके बाद, भगवान कृष्ण जाम्बवान के घर पहुंचे, और उस समय उनके पुत्र मणि खेलते हुए झूल रहा था।

एक अपरिचित मनुष्य को देखकर वह रोने लगा और उसकी मां भगवान को नहीं पहचान पाई। जाम्बवान् आये, भगवान्‌ को इस रूप में वे नहीं पहचान सके। भगवान्‌ की कुछ ऐसी ही लीला थी। दोनों में बड़ा घमासान युद्ध हुआ। और 27 दिनों तक युद्ध चला। जब कोई भी हार नहीं माना, तो भगवान् ने एक घूंसा मारा, जिससे जाम्बवान की शक्ति हार गई और उन्होंने समझ लिया कि भगवान् में अद्भुत शक्ति है।

जब वे भावना आई, तो वे भगवान रामचंद्र के सामने खड़े दिखाई दिए। उन्होंने अपने इष्टदेव के सामने श्रास्तांग नमस्कार किया, पूजा की और उन्होंने एक मणि के साथ अपनी कन्या जाम्बवती को समर्पण किया। इस तरीके से, उन्होंने अपने जीवन और सभी धन को भगवान के पास समर्पित करके जीवन का असली लाभ प्राप्त किया। वास्तव में, भगवान के चरणों में समर्पण करना ही हमारे जीवन का सबसे उच्च और महत्वपूर्ण लक्ष्य होता है।