श्री चित्रकेतु राजा की चिंता: The Stories and Life of Chitraketu, a Devotee of God
शूरसेन देश में प्राचीन समय में एक राजा चित्रकेतु थे। उनके पास सब कुछ था – बुद्धि, विद्या, बल, धन, यश, सौन्दर्य, स्वास्थ्य, आदि। उनमें उदारता, दया, क्षमा, प्रजावात्सल्य, आदि सद्गुण भी थे। उनके सेवक नम्र और अनुकूल थे, और मन्त्री नीति में निपुण थे और राज्य में भी कोई शत्रु नहीं था। राजा के कई सुंदरी रानियाँ थीं। लेकिन इसके बावजूद, राजा चित्रकेतु हमेशा दुखी रहते थे। उनकी किसी रानी के पास संतान नहीं थी, और यह बात उन्हें रात को नींद नहीं आने देती थी। उनकी चिंता थी कि वंश नष्ट हो जाएगा।
एक बार, ऋषि अंगिरा सदाचारी और भगवद्भक्त थे, वे राजा चित्रकेतु के दरबार में गए। महर्षि ने राजा पर कृपा की और उन्हें तत्त्वज्ञान देने का इरादा किया था, लेकिन उन्होंने देखा कि राजा का मानसिक स्थिति मोह से प्रभावित था। राजा की बड़ी इच्छा थी कि वह एक पुत्र पाएं।
महर्षि ने सोचा कि जब यह पुत्र वियोग का सामना करेगा, तो वह दुखी होगा, और यह दुख उसमें वैराग्य उत्पन्न कर सकता है। इसके बाद, वह सच्चे कल्याण की दिशा में बढ़ सकता है।
इसलिए, महर्षि ने राजा की प्रार्थना पर यज्ञ किया, जिससे एक पुत्र के रूप में एक अन्न का रूप आया। उसने राजा से कहा कि इस अन्न को किसी रानी को दे दें, और वादा किया कि इस पुत्र से राजा को हर्ष और शोक दोनों का अनुभव होगा।
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एक मृत बालक की मौत से पागल हुए राजा श्री चित्रकेतु जी को समझाते हुए महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद-
उस अन्नको खाकर राजा की एक रानी गर्भवती हुई बच्चा पैदा हो गया, और राजा और उनके प्रजा बहुत खुश थे। लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, राजा का पुत्र अपनी मां के प्रति अपना विशेष स्नेह दिखाने लगा। दूसरी रानियों के बारे में उनकी यादें धीरे-धीरे मिट गई।
राजा की उपेक्षा से उनकी दूसरी रानियों में सौतिया के प्रति कठिन भावनाएँ उत्पन्न होने लगी। एक दिन, सभी रानियां मिलकर एक षड़यंत्र बुनने लगीं। उन्होंने नवजात बच्चे को विष पिला दिया, और दुखदैःया, बच्चा मर गया। बच्चे की मृत्यु से राजा बहुत दुखी हो गए और उनका मन पागल-सा हो गया।
राजा को ऐसी विपत्ति में पड़ा देखकर उसी समय वहाँ देवर्षि नारद के साथ महर्षि अंगिरा आये। वे राजा को मृत बालक के पास पड़े देख समझाने लगे- राजन्! तुम जिसके लिए इतने दुखी हो रहे हो, वह तुम्हारा कौन है? इस जीवन से पहले वह तुम्हारा कौन था? अब आगे वह तुम्हारा कौन रहेगा? जैसे रेत के कण जल के प्रवाह से कभी एकत्र हो जाते हैं और फिर अलग-अलग हो जाते हैं, वैसे ही काल के द्वारा विवश हुए प्राणी मिलते हैं और फिर अलग होते हैं। पिता-पुत्र का संबंध केवल कल्पना है। ये शरीर न जन्म से पूर्व थे, और न मृत्यु के बाद रहेंगे। इसलिए, तुम इनके लिए शोक न करें।
महर्षि अंगिरा द्वारा दी गई शिक्षा: ज्ञान के महत्व का वर्णन-
राजा को इन शब्दों से कुछ सांत्वना मिली। उसने पूछा, “महात्मा! आप दोनों कौन हैं? आप जैसे भगवद्भक्त सिद्ध महापुरुष निःस्वार्थ भाव से पृथ्वी पर आकर लोगों को ज्ञान देते हैं, विषयों में फसे मूढ़ बुद्धि वालों की सहायता करते हैं। कृपया मुझ पर अपना आशीर्वाद दें और मुझे ज्ञान देकर इस शोक से बचाएं।”
महर्षि अंगिरा ने कहा, “राजन्! मैं तुम्हें पुत्र देने वाला अंगिरा हूँ और मेरे साथ यह ब्रह्मपुत्र देवर्षि नारद जी हैं। तुम ब्राह्मणों के और भगवान के भक्त हो, इसलिए तुम्हें कोई क्लेश नहीं होना चाहिए। मैं पहले ही तुम्हें ज्ञान देने आया था, पर उस समय तुम्हारा मन पुत्र-प्राप्ति में लगा था। अब तुमने पुत्र के वियोग का दुख देख लिया है। इसी तरह स्त्री, धन, ऐश्वर्य और अन्य सुख-साधने भी अनित्य होते हैं। उनका वियोग कभी-कभी होता है और वह दुखदायी होता है।
ये सब चीजें जैसे कि राज्य, घर, भूमि, सेवक, मित्र, परिवार, आदि हमें शोक, मोह, भय, और पीड़ा ही देती हैं। वे बस सपनों की तरह हैं और वास्तविकता में कोई असली शक्ति नहीं हैं। ये तब सुखदायक लगते हैं जब हम उन्हें अपनी भावनाओं के अनुसार देखते हैं। इस शारीरिक अभिमान की जद में ही हमें कई परेशानियाँ आती हैं, जैसे की धन, ज्ञान, और क्रिया से आने वाला अहंकार। हमें ध्यान द्वारा एकाग्रचित्त बनाना चाहिए और सिर्फ एक ही ईश्वर को सच मानकर उसमें चित्त लगाना चाहिए, तब हम शांति पा सकते हैं।
राजा को बोध देने के लिये देवर्षि नारद ने जीव का आवाहन करके बालक को जीवित किया-
राजा को बोध देने के लिए देवर्षि नारद ने जीव का आवाहन करके एक बच्चे को जीवित किया और उससे कहा, “देखो, ये तुम्हारे माता-पिता, बड़े भाई-बहन, और दोस्त तुम्हारे लिए चिंतित हो रहे हैं। तुम उनके पास क्यों नहीं हो?”
जीव बच्चे ने कहा, “मेरे माता-पिता और बड़े भाई-बहन किस-किस जन्म में मेरे माता-पिता थे? मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मानव, पशु, और पक्षियों के रूप में अनगिनत जन्मों में आया हूँ। सभी जीव एक-दूसरे के साथ कभी माता-पिता, कभी बच्चा, कभी दोस्त, कभी दुश्मन, कभी संबंधी, कभी अजन्म, कभी समाजीक और कभी अनासक्त बनते हैं।
ये लोग मेरे पुत्र बनकर रोते हैं क्योंकि वे कर्मवाद के अनुसार जीवों के साथ संबंधित हैं। वे जैसे व्यापारियों के साथ चली जाने वाली वस्तुओं को देखते हैं, जिनके मालिक आज वे हैं, कल दूसरे के हो सकते हैं, वैसे ही हमारी आत्मा भी नाना जीवों के शरीर में जन्म लेकर घूमती रहती है।
जितने दिन किसी शरीर के साथ आपका रिश्ता होता है, उतने दिन तक ही वह शरीर के लोग आपके अपने होते हैं, यह ऐसा है क्योंकि आत्मा का असली स्वभाव यहाँ नहीं है। आत्मा न कभी जन्मती है, और न कभी मरती है। वह हमेशा अमर और अविनाशी होती है, और वह सूक्ष्मता, सर्वव्यापी, और स्वयंप्रकाश होती है। वास्तविक रूप में, यह भगवान की माया के द्वारा विश्व में गुणों के आधार पर विभिन्न रूपों में प्रकट हो रही है।
आत्मा के लिए कोई अपना और पराया नहीं होता है। यह आत्मा एकमात्र होती है और वह देखने वाली बुद्धि के द्वारा हित और अहित, शत्रु और मित्र, आदि को ग्रहण नहीं करती है। आत्मा किसी भी संबंध या गुण-दोष को नहीं देखती है। आत्मा कभी नहीं मरती है, वह हमेशा अमर है, जबकि शरीर कभी अमर नहीं होता है। फिर भी, लोग व्यर्थ रो रहे हैं क्योंकि वे इस सत्य को नहीं समझते हैं। एक राजपुत्र ने इस सत्य को समझाया और उसकी बातों से सबका मोह दूर हो गया।
मृतक का अंतिम संस्कार करने के बाद राजा शांत हो गये। बालक को विष देने वाली रानियों ने जब यह ज्ञान सुना तो उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ।। यमुना तट पर जाकर उन्होंने अपने पाप का प्रायश्चित्त किया।
ऋषियों की शिक्षा से राजा चित्रकेतु दु:ख, मोह, भय और क्लेश देने वाले दुस्त्यज गृह का मोह छोड़कर महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद जी के पास गए और उनसे ईश्वर प्राप्ति का उपाय पूछने लगे।। नारद जी ने उन्हें भगवान् शेष का ध्यान तथा स्तुति-मन्त्र बतलाया । उपदेश करके दोनों ऋषि चले गये।