श्री प्रचेतागण: महात्म्य की उत्पत्ति/जन्म कथा (Shri Prachetagana: The Birth Story of Great Souls)
श्री प्रचेतागण:- महाराज पृथु के वंश में एक महान राजा थे, जिनका नाम बर्हिषद था। वे अपनी प्रजा की भलाइयों के लिए प्रेरणा स्रोत थे और वे धार्मिक कर्म का पालन करने वाले थे, जैसे कि यज्ञ और ध्यान आदि। वे बहुत पुण्यवान और आध्यात्मिक थे।
बर्हिषद ने यज्ञ किए, और वे एक के बाद एक यज्ञ किए, जिन्होंने भगवान की आराधना की। उन्होंने ब्रह्मा की सीख पर चलकर समुद्र की शतद्रुति कन्या के साथ विवाह किया और उनके साथ दस पुत्र प्रचेता उत्पन्न किए।
वे सबके साथ धर्म और भगवान की आराधना में लगे रहे थे। जब उनके पुत्र यवन की आयु हो गई, तो उन्होंने उन्हें विवाह करने की आज्ञा दी। लेकिन उन्होंने समझा कि अच्छी संतान पाना भगवान की कृपा के बिना मुश्किल है, इसलिए उन्होंने पश्चिम दिशा की ओर तप करने का निश्चय किया।
जब वे तप करने लगे, तो उन्होंने समुद्र के किनारे एक सुंदर सरोवर देखा, जिसमें जल पवित्र था और वहां रहने वाले प्राणी शांत थे, जैसे कि मत्स्य और कच्छप। सरोवर के किनारे गन्धर्व बज रहे थे और उनका गान अत्यंत मनमोहक था।
वहां से वे देवों के साथ समुद्र से निकल रहे थे, जैसे कि महादेव और उनके सेवक। जब राजपुत्रों ने इन्हें देखा, तो वे भक्ति भाव से प्रणाम किया।
भगवान शंकर ने उन राजपुत्रों को देखकर खुश होकर कहा, “हे राजपुत्रों! तुम राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र हो और तुम्हारी इच्छा है कि तुम भगवान की पूजा करो। मैं तुम्हारी इच्छा को जानता हूँ, और मैंने तुम्हें दर्शन दिये हैं क्योंकि जो व्यक्ति भगवान वासुदेव की शरण में जाता है, उसे मैं अपने अनुग्रह से आशीर्वाद देता हूँ। जैसे मुझे भगवान प्रिय हैं, वैसे ही तुम भगवद्भक्त भी मेरे लिए प्रिय हो, और भगवान के भक्तों के लिए भी कोई और प्रिय नहीं है।”
इसलिए, मैं आपको एक पवित्र और महत्वपूर्ण स्तोत्र कहता हूँ, जिसका जप करने से आपको आंतरिक शांति और भगवान के प्रति समर्पण की भावना होगी। इसके साथ ही, आपको अपने धर्म का पालन करते हुए और शुद्ध मनसा इस स्तोत्र का जप करना चाहिए। इसके माध्यम से, आपको मंगलकारी और श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति होगी, और आपका जीवन भगवान के प्रकार का बनेगा। साथ ही, आपको अपने मन को शुद्ध रखकर और समर्पित भावना से इस स्तोत्र का जप करना चाहिए।
यदि आप इसे एकांत में और मौन भाव से करें, तो यह आपके लिए कल्याणकारी साबित हो सकता है। इसके साथ-साथ, आपको भगवान के भक्ति और पूजा का ध्यान रखना चाहिए, न केवल अपने बल्कि दूसरे सभी प्राणियों के प्रति भी।
यह कहकर भगवान् शंकर ने उन्हें अड़सठ श्लोकों का वह उत्तम स्तोत्र कह सुनाया और राजपुत्रों से पूजित होकर वे उनके सामने वहीं अन्तर्धान हो गये राजपुत्रों ने उस स्तोत्र का जप करते हुए समुद्र के अन्दर कटिपर्यन्त जल में खड़े होकर दस हजार वर्ष तक तप किया।
प्रचेतागण (राजपुत्रों ) को भगवान् श्री हरि के दर्शन-
भगवान श्री हरि, जो बहुत पवित्र और सात्विक गुणों से युक्त हैं, उनके तपस्या से बहुत खुश हो गए और उनके कठिनाइयों को दूर करने के लिए उनके पास आए। उन्होंने कहा, “हे राजपुत्रो, तुम भगवदाराधन का एकमात्र धर्म अपने दिल से पाल रहे हो और हम तुम्हारे इस स्नेहपूर्ण भाव से बहुत खुश हैं।”
इसलिये हमसे इच्छित वर माँगो। जो मनुष्य प्रतिदिन सन्ध्या के समय तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका भ्राताओं में तथा सकल प्राणियों में तुम्हारे ही समान प्रेम उत्पन्न होगा। तुम्हें ब्रह्मा के समान एक लोक प्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न होगा, जो अपनी संतान के द्वारा इस त्रिलोकी को भर देगा।
उन्होंने भगवान की अनेक तरीकों से प्रशंसा की और कहा, “प्रभु, आप सब कुछ जानते हैं। फिर भी, अगर आप हमारी इच्छा सुनना चाहते हैं, तो हम जानते हैं कि आप सबके दिल की बातें जानते हैं। इसलिए हम आपके प्रसन्न होने पर निर्भर करते हैं। आपकी कृपा से, हमें आपके चरणों का आशीर्वाद प्राप्त हो गया है। अब हम आपसे क्या मांग सकते हैं? कृपया बताएं, हमारे लिए क्या अभिष्ट हो सकता है?”
इसलिए, हम चाहते हैं कि जब तक हम इस संसार में रहते हैं और अपने कर्म करते हैं, हमें हमेशा आपके भक्तों के साथ रहने का सौभाग्य मिले। संसारिक चीजों को छोड़कर, हम साधु संग को ही स्वर्ग और मोक्ष मानते हैं। दूसरी बात, हम आपसे यही प्रार्थना करते हैं कि हमारे दीर्घकालिक तपस्या के परिणामस्वरूप, हमें आपकी कृपा मिले।
प्रचेताओं के इन प्रेम भरे वचनों को सुनकर भगवान् बड़े सन्तुष्ट हुए और ‘तथास्तु’ कहकर अपने धाम को चले गये। उनके चले जानेपर प्रचेतागण समुद्र में से बाहर निकले और उन्होंने ब्रह्मा जी की आज्ञा से वृक्षों की दी हुई मारिया नामक कन्या के साथ विवाह कर लिया।
मारिषा के गर्भ से ब्रह्मा जी के पुत्र दक्षप्रजापि को फिर से जन्म मिला। उन्होंने चाक्षुष मन्वन्तर में भगवान शंकरका अपराध किया था और अपने शरीर को त्याग दिया था। उनके कर्मों के कारण, लोग उन्हें ‘दक्ष’ नाम से जानने लगे। जब ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रजाओं की सृष्टि और सुरक्षा के कार्यों में नियुक्त किया, तो ये प्रचेतागण अपनी पत्नी को अपने पुत्र के पास छोड़कर वन में चले गए।
प्रचेतागण (राजपुत्रों ) को नारद जी के दर्शन-देवाधिदेव शंकर और भगवान् नारायण ने तत्त्व ज्ञान का उपदेश पुनः याद दिलाया-
उन्होंने पहले की तरह पश्चिम दिशा की ओर जाकर समुंदर के किनारे पर जाकर ब्रह्मसत्र दीक्षा ग्रहण करने का मतलब, आत्मविचार करने का इरादा किया। उसके बाद, वे अपने प्राण, मन, वाणी और दृष्टि को नियंत्रित करके, आसनों पर विजय प्राप्त करके, और मूलाधार चक्र से लेकर सिर तक सभी शारीरिक अंगों को शांत और स्थिर करके शुद्ध ब्रह्म में मन को लगाने का अभ्यास करने लगे। वे जब इस तरह साधना में लगे थे, तब उन दिनों ऋषि नारद उनके पास आए। ऋषि नारद को आते देख, सभी लोग उठ खड़े हुए और उन्हें आसन पर बिठाकर उनका सम्मान किया, उनकी पूजा की।
जब नारद जी स्वस्थ होकर बैठ गए, तो प्रचेतागण उनसे इस प्रकार कहने लगे, “हे देवर्षि! आज हम आपके आगमन से खुश हो गए हैं। आपने हमें दर्शन दिए, इसके लिए हम आपके चिरंजीवी रूप में रहेंगे। अब आप हम पर एक अत्यंत कृपा करें, क्योंकि हम देवाधिदेव शंकर और भगवान नारायण द्वारा दिये गए तत्त्व ज्ञान को भूल गए हैं।”
इसलिए, नारद जी ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और उन्हें आत्मतत्त्व का उपदेश दिया। उन्होंने भगवान और उनके भक्तों के कई महत्वपूर्ण इतिहासों का सुनाने के बाद ब्रह्मलोक की ओर चले गए। प्रचेत भी देवर्षि नारद के मुख से भगवान के मंगलमय यश का सुनकर उनके पादों की आराधना करते हुए देवों के सुखद लोक को प्राप्त कर लिया।
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