Shri Ram Avtar: क्या हैं भगवान श्री राम का अद्वितीय चरित्र?
भक्तवत्सल करुणावरुणालय भगवान् श्री राम चन्द्र जी श्री अयोध्यापति चक्रवर्ती महाराज श्री दशरथ जी के पुत्र रूप में चैत्र शुक्ल ९ रामनवमी को अवतरित हुए। चार रूप धारण करके महारानी श्री कौशल्या जी की गर्भ से श्रीराम, श्री कैकेयी जी की गर्भ से श्री भरत, श्री सुमित्रा जी की गर्भ से श्री लक्ष्मण और शत्रुघ्न अवतार प्रकट हुए।
यथासमय जातकर्म, नामकरण, चूड़ाकरण, यज्ञोपवीतादि संस्कार सहर्ष पूर्ण हुए। श्रीराम किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं इसी हर्षोल्लास के बीच एक दिन श्री विश्वामित्र जी आते हैं और श्री दशरथ जी महाराज से अपने यज्ञरक्षणार्थ श्रीराम जी एवं श्रीलक्ष्मण जी को माँग ले जाते हैं।
यज्ञ में विघ्न डालने वाले ताड़का, मारीच, सुबाहु आदि असंख्यों राक्षसों का सहज ही श्रीराम और लक्ष्मण ने वध कर डाला। यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ।
फिर श्री विश्वामित्र जी के साथ जनकपुर में श्री सीता जी का स्वयंवर देखने के निमित्त जाकर धनुष तोड़ कर जनक नंदिनी सीता से विवाह सम्पन्न हुआ, पश्चात् यह शुभ समाचार श्री अयोध्या भेजा गया और दशरथ जी आये ब्याह के लिये, परंतु ब्याह हो गया।
महाराज दशरथ वृद्धावस्था का आभास पाकर दशरथ जी महाराज ने उत्तम गुणों से युक्त और सत्य पराक्रम वाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ पुत्र श्रीराम को, जो प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले थे, प्रजावर्ग का भला करने की इच्छा से युवराज-पद अभिषिक्त करना चाहा।
तदनन्तर श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ देख कर रानी कैकेयी ने जिसे महाराज दशरथ पहले ही वर दे चुके थे, रानी कैकेयी को देवमाया से मोहित होकर, मन्थरा द्वारा उकसायी जाने पर, राजा से यह वर माँगा कि श्रीराम का को 14 वर्ष का वनवास और भरत का राज्याभिषेक हो।
कैकेयी के वचनों के अनुसार, पिता की आज्ञा के अनुसार इनकी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वीर श्रीराम वन को चले। विदेहवंशवैजयन्ती मिथिलेश राजनन्दिनी श्रीराम प्रिया जान की एवं श्री सुमित्रानन्दन लक्ष्मण भी प्रेमवश प्रभु के साथ चल दिये। उस समय पिता दशरथ जी ने अपना सारथि भेजकर एवं पुरवासियों ने स्वयं साथ जाकर दूरतक उनका अनुसरण किया।
श्री श्रृंगवेरपुर में गंगा तट पर अपने प्रिय सखा निषादराज गुह के पास पहुँचकर धर्मात्मा श्री राम ने सारथि को अयोध्या के लिये विदा कर दिया। लक्ष्मण और सीता के साथ श्री राम मार्ग में बहुत जलवाली अनेकों नदियों को पार करके एक वन से दूसरे वन को गये।
महर्षि भरद्वाज जी का दर्शन कर, उन्होंने महर्षि वाल्मीकि जी का दर्शन किया और उनकी आज्ञा से, चित्रकूट पहुँचकर वहाँ वे तीनों देवता और गन्धर्वो के समान वन में अनेक लीलाएँ करते हुए एक रमणीय पर्णकुटी बनाकर उसमें सहर्ष रहने लगे।
पुत्रशोक में श्री दशरथ जी के स्वर्गगमन के पश्चात् श्री वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों द्वारा राज्य संचालन के लिये नियुक्त किये जाने पर भी महा बलशाली वीर भरत ने राज्य की कामना न करके, पूज्य श्री राम को प्रसन्न करने के लिये वन को ही प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचकर ज्येष्ठ भ्राता श्री राम से यों प्रार्थना की- धर्मज्ञ ! आप ही राजा हों।
परंतु महान् यशस्वी श्रीराम ने भी पिता के आदेश का पालन करते हुए राज्य की अभिलाषा न की और भरत के माँगने पर ने राज्य के लिये न्यास (चिह्न) रूप में अपनी खड़ाऊँ भरत को देकर उन्हें बार-बार आग्रह करके लौटा दिया।
श्री भरत ने श्रीराम के चरणों का स्पर्श किया और श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए वे नन्दिग्राम में रहकर राज्यकार्य सँभालने लगे।
भरत के लौट जाने पर सत्यप्रतिज्ञ श्रीराम ने, वहाँपर नागरिकों का पुनः आना-जाना देखकर उनसे बचने के लिये दण्डकारण्य वन में प्रवेश किया। उस महान् वन में पहुँचने पर महावीर श्रीराम ने विराध नामक राक्षस को मारकर श्री शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि मुनियों का दर्शन किया। श्रीराम ने दण्डकारण्यवासी अग्निके समान तेजस्वी उन ऋषियों को राक्षसों के मारने का वचन दिया और वध की प्रतिज्ञा की।
इसके पश्चात् वहाँ ही रहते हुए सूर्पणखा नाम की राक्षसी को लक्ष्मण के द्वारा उसके नाक कटाकर कुरूप कर दिया। पश्चात् सूर्पणखा के द्वारा प्रेरित होकर चढ़ाई करने वाले खर, दूषण, त्रिशिरादि चौदह हजार राक्षसों को श्रीराम ने युद्ध में मार डाला।
तदनन्तर राक्षसेन्द्र रावण ने प्रतिशोध की भावना से मारीच की सहायता से श्रीजानकी जी का अपहरण कर लिया और श्रीजानकी जी को लेकर जाते समय मार्ग में विघ्न डालने के कारण श्रीजटायु जी को आहत कर दिया। पितृवत् पूज्य जटायु के द्वारा ही श्रीराम जी को श्री जानकी जी का पता मिला।
तब श्री राम गोद में प्राण त्यागे हुए श्री जटायु जी का अग्नि-संस्कारकर वन में श्री सीता जी को ढूँढ़ते हुए उन्होंने कबन्ध नामक राक्षस को देखा तो उसे भी तत्काल मारकर शुभगति प्रदान की। कबन्धके द्वारा संकेत पाकर श्री राम परम भागवती शबरी जी के यहाँ गये। उसने इनका पूजन किया।
श्री राम ने शबरी का मातृवत् सम्मान किया। उत्तम गति प्रदान की। फिर शबरी के संकेतानुसार श्री हनुमान से मिलकर सुग्रीव जी से मित्रता की और सुग्रीव के कथनानुसार संग्राम में बाली को मारकर उसके राज्यपर श्री राम ने सुग्रीव को बिठा दिया।
तब उन वानरराज सुग्रीव ने भी सभी वानरों को बुलाकर श्री सीता की जी का पता लगाने के लिये भेजा। सम्पाती गृध्र के पता बताने पर महाबलवान् हनुमान् जी सौ योजन विस्तार वाले क्षारसमुद्र को कूदकर लाँघ गये। वहाँ रावणपालित लंकापुरी में पहुँचकर उन्होंने अशोक वाटिका में सीता जी को देखा।
तब उन विदेहनन्दिनी को पहचान (मुद्रिका) देकर श्री राम का सन्देश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिका का विध्वंस कर डाला, साथ ही अक्षयकुमारादि असंख्य राक्षसों का संहार कर डाला, और बाद में हनुमान् जान-बूझकर पकड़ में आ गये।
श्री ब्रह्मा जी के वरदान से अपने को ब्रह्मपाश से छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमान् जी ने अपने को बाँधने वाले उन राक्षसों का अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया। तत्पश्चात् मिथिलेश कुमारी सीता के स्थान के अतिरिक्त समस्त लंका को जलाकर वापस राम जी के पास लौटे।
श्री राम को प्रिय सन्देश सुनाने के लिये लंका से लौट आये और श्रीराम जी की प्रदक्षिणा कर श्रीजानकी जी का पता बताया। इसके अनन्तर असंख्य वानर सेना को साथ लेकर श्रीराम ने महासागर के तटपर सूर्य के समान तेजस्वी बाणों से समुद्र को क्षुब्ध किया।
तब नदीपति समुद्र ने अपने को प्रकट कर दिया, फिर समुद्र के ही कहने से श्रीराम ने नल-नील से पुल का निर्माण कराया। उसी पुल से लंकापुरी में जाकर रावण को सदल-बल मारकर भगवान् राम ने श्रीजानकी जी को प्राप्त किया।
साध्वी सीता ने अपनी अग्निपरीक्षा दी। इसके बाद अग्नि के कहने से श्रीराम ने श्रीसीता को निष्कलंक माना। महात्मा श्रीरामचन्द्र के इस कर्म से देवता और ऋषियोंसहित चराचर त्रिभुवन सन्तुष्ट हो गया।
फिर सभी देवताओं से पूजित होकर राम बहुत प्रसन्न हुए और राक्षसराज विभीषणजी को लंका के राज्य पर अभिषिक्त करके तथा स्वयं देवताओं से वर पाकर और मरे हुए वानरों को जीवन दिलाकर अपने सभी साथियों के साथ पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए।
भरद्वाजमुनि के आश्रम पर पहुँचकर सबको आराम देने वाले सत्य-पराक्रमी श्री राम ने भरत के पास हनुमान् जी को भेजा, पुनः श्री हनुमान् जी से श्री अवध का समाचार पाकर भरद्वाज-आश्रम से अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए। श्री अयोध्या पहुँचकर अवधवासियों के उमड़ते हुए अनुराग को देखकर श्री वसिष्ठ जी के आदेशानुसार शुभघड़ी में श्री रामभद्रजू राज्यसिंहासनासीन हुए।
श्री राम जी के सिंहासन पर बैठते ही त्रैलोक्य परम आनन्दित हो गया। भगवान् श्री राम ने सुदीर्घकाल तक पृथ्वी पर अभूत पूर्व सुशासन स्थापित किया, उनके राज्य में प्रजामात्र तापत्रय से सर्वथा मुक्त थी, आज भी राम राज्य को आदर्श माना जाता |
Read More – मत्स्य अवतार, श्री वराह अवतार
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