Ujjain Mahakal: महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा
एक अग्निहोत्रि ब्राह्मण थे जो वेद पाठी थे त्रिकाल संध्या करते थे ओर प्रतिदिन पार्थिव लिंग बना कर भगवान शंकर का अभिषेक करते थे। पास में एक रत्नमाल नामक पर्वत था वहाँ पर एक दूषण नामक दत्य रहता था जो स्वभाविक रूप से संत ऋषि से द्वेष करता था। उसने देखा ये कोन ब्राह्मण सुबह सुबह नमः शिवये नमः शिवाये करने बैठ जाता हैं। यज्ञ करता हैं उसका दुआं उठता हैं मुझे वयवधान होता हैं फिर पहलें तो अपने सेनिको को उन बाह्मणो को कष्ट देने के लिए भेजा लेकिन जो अग्निहोत्रि जो बाह्मण थे वे ऐसे शिव उपासक थे की अर्चना करते करते उनको देह की सुध नहीं रहती थी।
अग्निहोत्री ब्राह्मण के लिए उज्जैन महाकाल (Mahakal) प्रकट हुए
जो कोई देत्य उन ब्राह्मण सताने जाता था तब ही भोलेनाथ का त्रिशूल उन बाह्मण की परिक्रमा करता रहता जिससे कोई उनको विघन नहीं पहुँचा पाया। अख़िर में वो दूषण देत्य जो महान बलशाली था। अपनी पुरी शक्ति के साथ उन अग्निहोत्री ब्राह्मण को मारने के लिए टूट पड़ा। लेकिन वो बाह्मण तो शिव के ध्यान सेवा में लगे थे उनको होश नहीं। जैसे ही देत्य बाह्मण को मारने टूट पड़ा उन ब्राह्मण के पार्थिव शिवलिंग से साक्षात् महाकाल प्रकट हो गए।
ओर जैसे ही महादेव महाकाल ने हुंकार भरी उस देत्य की मृत्यु महाकाल की एक हुंकार से ही हो गई। ऐसे महाकाल (Mahakal) प्रकट हो गए ओर जैसे उन अग्निहोत्री ब्राह्मण महाकाल के साक्षात् स्वरुप को देखा, तो भोलेनाथ के चरण पकड़ लिए ओर कहने लगे- हे नाथ ये देत्य तो मेरे लिए बहुत परूपकारी हो गया। अभी तक तो मैं आपके शिवलिंग बनाता था उसमे आपका भाव करता था। प्रभु यदि इस देत्य ने मेरे ऊपर प्रहार ना किया होता। तो आज साक्षात् रूप में मुझे आपका दर्शन ना हुए होते।
महाकाल बोले- हे ब्राह्मण मैं तुम्हारी साधना से अति प्रसन्न हुँ। माँगो क्या माँगते हो? तब ब्राह्मण कहते हैं- हे बोलेनाथ आप हुए तो अच्छे लगते हो जाते हुए अछे नहीं लगते तो बस इस स्वरुप से यही विराजमान रहो। हो सकता हैं मेरे बाद आपका कोई इतना कठिन जप तप कर पाए या ना कर पाए। हे प्रभु आप यहाँ स्थापित हो जाओ। ओर जो आपका दर्शन करें उसके जीवन के काल के भय को दूर कर उसे निर्भय कर दीजिए।
तब महादेव कहते है- अब मैं यहाँ विराजमान रहूँगा और मेरे इस स्वरुप का नाम होगा महाकाल (Mahakal) फिर तभी से महाकाल उज्जैन में विराजमान हो गए। फिर कुछ साल बाद वहाँ एक चन्द्रसेन नामक राजा हुए। वो भी महाकाल की सेवा पूजा करते थे वही पर एक श्रीकर नाम का गोप बालक था। उस समय तक मंदिर का निर्माण नहीं हुआ था वही से श्रीकर अपनी मैया के साथ निकलता हुआ जा रहा था । बालक ने देखा राजा पूजा अर्चना कर रहा हैं बालक ने अपनी मैया से कहा मैं भी भगवान की पूजा अर्चना करूँगा।
माँ ने कहा बवारे ये राजा का मंदिर हैं वो सब लोग नहीं जा सकते चल यहाँ से लेकिन वो बच्चा हट करता ही रहा। नहीं मैं भी शंकरजी की पूजा करूँगा तब माँ ने कहाँ बेटा वो राजा का मंदिर है बालक बोला तो मैं अपना एक अलग शिव मंदिर बनूँगा। बालक ने पास में छिपरा नदी से गोल गोल पत्थर उठा लिया शिवलिंग के जैसा ओर घर पर बैठकर उसी पत्थर रूपी शिवलिंग की पूजा करने लगा।
पुरी लगन के साथ तन्मय होकर शिवलिंग का अभिषेक करता जल चढ़ता, बेल पत्र चढ़ता लेकिन दूसरी और ओर माँ बहुत दुःखी हो गई। और सोचने लगी ये कुछ काम धाम नहीं करता बस उस पत्थर की पूजा में लगा रहता है। तब उस बालक की माँ ने उस पत्थर को उठकर छिपरा नदी मे फेंक दिया। चल हट रात दिन इसी में लगा रहता है तो जैसे ही उसकी माँ शिला को फेंका नदी में तो वो बालक व्याकुल होकर चीख़ चीख़ कर रोने लगा।
Mahakal ka Shrikar ke liye Prakataye: महाकाल का श्रीकर के लिए प्राकट्य
मेरे बोलानाथ, मेरे बोलानाथ, मेरे बोलानाथ वो बालक छिपरा नदी में कूदकर प्राण त्याग देता वो बालक भागता रहा मेरे बोलानाथ, मेरे बोलानाथ कहता हुआ। जैही से कूद जाना चाहता था नदी में लेकिन उसी समय उन महाकाल के शिवलिंग से पुनः महाकाल प्रकट हो गए। ओर उस भागते डुबने जा रहे बच्चे को बचा लिया । राजा देखता रह गया भगवान ने राजा से कहा मैं महाकाल हुँ अग्निहोत्री बाह्मण के लिए प्रकट हुआ था अब ये मंदिर केवल राजा के नहीं सार्वजनिक होगा। सब लोग यह आकर पूजा सेवा कर सकते है दर्शन कर सकते है।
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