“नृसिंह अवतार की कहानी: भगवान के भयानक स्वरूप दिव्य अद्भुत वर्णन”
भगवान नृसिंह अवतार, हिंदू धर्म के दशावतारों में से एक है जिसे विष्णु भगवान का चौथा अवतार माना जाता है। इस अवतार का केंद्रीय कथा हिरण्यकशिपु नामक एक राक्षस के खिलाफ है, जो अपनी असीम शक्ति के कारण अपने आत्मविश्वास में अत्यधिक बढ़ गया था।
वराहभगवान ने हिरण्याक्ष को मार डाला था, जिससे हिरण्यकशिपु और उसका परिवार बहुत दुखी हुए। हिरण्यकशिपु की बहन दिति और उसकी पत्नी भानुमती भी दुखी थीं। हिरण्यकशिपु दैत्यराजा थे और उन्होंने सबको समझाने की कोशिश की, लेकिन वह खुद शांत नहीं थे। उनके दिल में प्रतिशोध की आग बढ़ गई। उन्होंने तय किया कि वे तपस्या करके इस शक्ति को प्राप्त करेंगे, जिससे वे अमर बन सकें और त्रिलोक को जीत सकें।
हिरण्यकशिपु ने मन्दराचल की घाटी में बहुत भारी तप किया, जिससे ताप से देवलोक भी प्रभावित हुआ। देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा जी आए और हिरण्यकशिपु से कहा कि वह कुछ भी वर मांग सकते हैं।
हिरण्यकशिपु ने यह मांग की कि उसकी मृत्यु किसी भी प्राणी द्वारा नहीं होने चाहिए,ना मै दिन में मरो न रत में मरो, ना पृथ्वी पर हो ना आकाश में, बाहर मरो न भीतर, ना आस्त्र-शस्त्र से हो, 12 महीनो में से किसी महीने में न मरो, ना से नर से मरो न वानर से । तपस्वियों और योगियों, योगेश्वरों को जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिये। ब्रह्माजी ने ‘तथास्तु’ कहकर उसके माँगे वर उसको दिये।
वह अपनी चतुराई पर बड़ा ही प्रसन्न कि मैंने ब्रह्मा को भी ठग लिया। उनके न चाहने पर भी मैंने अमरत्व का वरदान ले ही लिया। यह जीव का स्वभाव है, वह अपनी चतुराई से भगवान् को भी धोखा देने का प्रयत्न करता है। वैसे ही हिरण्यकशिपु ने भी अपनी समझ से मृत्यु का दरवाजा बन्द ही कर लिया था, किंतु भगवान् ने जब चाहा तो खोल ही लिया।
उसने सब दिशाओं, तीनों लोकों, देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गन्धर्वों, गरुड़ों, सर्पों, सिद्धों, चारणों, विद्याधरों, ऋषियों, पितृगणों, मानवों के श्रेष्ठ, मनुष्यों के रक्षक यक्षों, राक्षसों, पिशाचों के राजा, भूतों और प्रेतों के महानायकों को अपने अधीन कर लिया।
इस तरह, हिरण्यकशिपु आसुर ने अपनी शक्ति से सभी लोकपालों की सत्ता हर ली और खुद इंद्र के पृष्ठभूमि पर आ गया। उसने दैत्यों को आदेश दिया कि उन्हें ब्राह्मणों और क्षत्रियों को रोक देना चाहिए, क्योंकि ये लोग तपस्या, व्रत, यज्ञ, ध्यान और दान जैसे शुभ कार्य कर रहे हैं। वह सोचता था कि यही विष्णु की शक्ति है और धर्म का आधार है।
दैत्यों ने वैसा ही किया, लेकिन त्रैलोक्य में धर्म का नाश हो रहा था। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद जी वे भगवान् विष्णु के अद्भुत भक्त थे,सिर्फ पांच साल की उम्र में ही,भगवान् की भक्ति में रम गए। प्रह्लाद ने विष्णु के भक्त के रूप में जन्म लिया, और हिरण्यकशिपु ने तय कर लिया कि यही उनका असली शत्रु है, जो मेरे पुत्र के रूप में प्रकट हुआ है।
अतः इसलिए, हिरण्यकशिपु ने पुत्र प्रह्लाद मारने के आदेश दिए, लेकिन दैत्यों के सभी प्रयास बेकार रहे। इसके बाद हिरण्यकशिपु बहुत परेशान हुआ। उसने उन्हें कुचलने की कोशिश की, सर्पों को उनकी ओर भेजा, एक राक्षसी को बुलाया जो प्रह्लाद को खा सके, पहाड़ों से उन्हें गिरवाया, और अनेक प्रकार की माया का उपयोग किया, विष दिलाया।
दहकती आग में प्रवेश कराया और समुद्र में डुबाने की कोशिश की, लेकिन प्रह्लाद अपने भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा में स्थिर रहे। उसके बाल भी बाँका नहीं हुआ।
इसके बाद, हिरण्यकशिपु के गुरु पुत्रों ने सलाह दी कि उन्हें प्रह्लाद को वरुणपाश से बांधकर रखने का प्रयास करना चाहिए, ताकि वह भाग न जा सके। उनके गुरु पुत्र ने उन्हें धर्म, अर्थ, और काम की शिक्षा भी दी।
एक दिन, छुट्टी के समय, प्रह्लाद ने अपने समवयस्क असुर मित्रों को भगवद्भक्ति के महत्व के बारे में बताया, और उन्होंने भगवान की भक्ति में आदर्श बना दिया। इसे देखकर हिरण्यकशिपु के पुरोहित ने हिरण्यकशिपु को सब कुछ बताया। हिरण्यकशिपु क्रोधित हो उठा और प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया।
प्रह्लाद ने अपने पिता को परमात्मा, सर्वशक्तिमान ईश्वर के स्वरूप का उपदेश दिया।, हिरण्यकशिपु क्रोध में भरकर बोला-दिखाओ, तुम्हारा जगदीश्वर कहाँ है? प्रह्लाद ने कहा – वह तो सर्वत्र है तो इस स्तम्भ में वह दिखाई क्यों नहीं देता?अच्छा, तुझे इस खम्भे में भी दीखता है। मैं अब तुम्हारा सिर अलग कर दूँगा और देखूँगा कि तुम्हारा वह हरि कैसे तुम्हारी रक्षा करता है? वे मेरे सामने आयें तो सही। इत्यादि, कहते-कहते जब वह क्रोध को सँभाल न सका।
हिरण्यकशिपु ने कहा वो सब जगह है तो क्या इस महल में भी है प्रलाद ने कहा हाँ वो इस महल में भी है। हिरण्यकशिपु ने कहा तो मुझे इस महल में बने खम्बे में क्यों दिखाई नहीं देता क्या तेरा वो विष्णु इस खम्बे में नहीं है। फिर प्रहलद ने कहा जी पिता जी मुझे तो मेरे प्रभु इस खम्बे में भी दिखाई दे रहे है। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को उस खम्बे से बांध दिया और कहा अब देखता हूँ तेरा हरि तुझे कैसे बचाता है।
प्रहलद आंखे बंद किये भगवान श्री हरि का जाप करने लगे ये देख कर हिरण्यकशिपु ने क्रोधित होकर खब्बे पर प्रहार किया और उसी समय खम्बे में से एक विचित्र प्राणी निकला जिसका आधा शरीर सिंह का और आधा शरीर मानव का था। उसे देख सभा में खड़े सभी लोह घबरा गए यही भगवान् श्री हरि का अद्वितीय रूप में नृसिंह भगवान का अवतार था। उनका ये रूप बहुत भयंकर था वे भयंकर गर्जन कर रहे थे।
जिस से सारा महल काँप उठा था। ये देखकर हिरण्यकशिपु भगवान नृसिंह पर लड़ाई के लिए टूट पड़ा, और फिर हिरण्यकशिपु भगवान नृसिंह के बिच युद्ध आरम्भ हो गया भगवान नृसिंह ने हिरण्यकशिपु को दबोच लिया और उसे महल की चौखट पर जांघो लिया हे हिरण्यकशिपु ब्रह्मा जी के वरदान का आदर करते हुए।
मैं तेरा वध कर रहा हूँ ना दिन है। ना रात है संध्या बेला है ना घर के अंदर ना बाहर चौघट पर मारूंगा ना ही मनुष्य न ही पशु मेरा आधा शरीर मनुष्य है और आधा शरीर पशु है मैं तुझे किसी अश्त्र शस्त्र से नहीं अपने नाखुनो से मार रहा हूँ। इतना कहते ही भगवान नृसिंह ने नाखुनो से हिरण्यकशिपु के कलेजे को फाड़ दिया और उसे पृथ्वी पर पटक दिया।
भगवान नृसिंह का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु के सिंघासन पर बैठ गए और गर्जना करने लगे। भगवान को इतना क्रोध में देख कर कोई भी भगवान नृसिंह के पास आने की हिम्मत नहीं कर रहा था यहाँ तक की उनकी प्रिया लक्ष्मी जी भी डर रही थी। उनका ऐसा क्रोध देखकर तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा पुत्र अब तुम ही भगवान नृसिंह को शांत कर सकते हो।
प्रह्लाद भगवान नृसिंह के समीप जाकर उनकी स्तुति करने लगे और भगवान का क्रोध शांत कर दिया और भगवान नृसिंह ने प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठा लिया और उसे अपनी जीब से चाटने लगे और बोले पुत्र मुझे माफ़ कर दो मैंने आने में देर कर दी तुम्हे बहुत कष्ट सहना पड़ा और फिर भगवान प्रह्लाद के आग्रह पर विष्णु के रूप में आते है और प्रह्लद को आर्शीवाद देते है।
Read More – मत्स्य अवतार, श्री वराह अवतार
Table of Contents