सती के पिता श्री दक्ष जी कौन थे? और माँ जगदम्बा का सती रूप में जन्म-
दक्ष जी ब्रह्मा जी के अँगूठे से उत्पन्न हुए थे। स्वायम्भुव मनु की कन्या प्रसूति दक्ष की पत्नी बनी। प्रजा पति दक्ष ने क्षीर सागर के उत्तर तट पर जाकर देवी जगदम्बिका की पुत्री बनने की इच्छा की और उनके प्रत्यक्ष दर्शन की आकांक्षा रखी। उन्होंने अपने हृदय के मंदिर में जाकर कठिन तप किया। उनकी सात्त्विक आराधना से संतुष्ट होकर जगदम्बिका ने दर्शन किए और पुत्री होने का वचन दिया, साथ ही यह भी कहा कि यदि कभी उनके प्रति आदरभाव कम हो जाए, तो वह तुरंत अपने शरीर को त्यागकर अपने स्वरूप में विलीन हो जाएंगी। दक्ष इस सोच में बहुत प्रसन्न रहे कि देवी शिवा उनकी पुत्री होने वाली हैं।
ब्रह्मा जी की आज्ञा से, दक्ष प्रजापति ने पंचजन प्रजापति की कन्या असिक्नी को अपनी पत्नी बनाया और हर्यश्वसंज्ञक दस हजार पुत्रों को जन्म दिया। पिता की आज्ञा के मुताबिक, ये पुत्र उत्तम सृष्टि के उद्देश्य के साथ हर्यश्वगण नारायण सरोवर पर जाकर तप करने लगे। देवर्षि नारदजी ने उन्हें आत्मतत्त्व का ज्ञान दिलाकर उन्हें निवृत्ति की दिशा में मार्गदर्शन किया।
तत्पश्चात् दक्ष जी ने एक हजार पुत्रों को जन्म दिया, जिनका नाम शबलाश्व था, परंतु श्री नारद जी ने इन्हें भी पहले ही भगवान के मार्ग पर चलने वाले बना दिया।
फिर, दक्ष जी ने क्रोधित होकर श्री नारद जी पर शाप दिया कि अब से तीनों लोकों में तुम्हारे पैर स्थिर नहीं रहेंगे। नारद जी ने इसे भगवान की इच्छा के अनुसार ही स्वीकार कर लिया और उनके पैर अब तीनों लोकों में नहीं थे।
श्री दक्ष जी द्वारा उत्पन्न कन्याओं से विशाल वंश-परम्परा की उत्पत्ति-
श्री दक्ष जी ने एक समय प्रसूति के गर्भ से चौबीस कन्याएँ पैदा कीं। उन्होंने बारह कन्याओं को धर्म के साथ विवाह किया, जिसमें एक कन्या को अग्नि, एक को शिव, और एक को पितृगण के साथ विवाह किया। बाकी आठ कन्याएँ मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ, और भृगु को अपने पति चुनकर उनसे विवाह किया। इसके परिणामस्वरूप, प्रसूति की कन्याएँ ने एक बड़े वंश का आरंभ किया, जो त्रिलोक में फैल गया। इस प्रकार की प्रजा की वृद्धि का उपकार दक्ष ने किया, और इसके कारण ब्रह्मा ने इन्हें प्रजापतियों के नेता बनाया।
दक्ष जी का महासभा में शिव जी के प्रति अहितकर व्यवहार और उनके दिए दुर्वचन-
जब सूरज के समान चमकदार दक्ष जी वहाँ आए, तो उनकी तेजी से उपस्थित श्री शिव जी और ब्रह्मा जी को छोड़कर, अन्य सभी देवता, ऋषि और अन्य सदस्यों ने अपने आसनों से उठकर उनका स्वागत किया। दक्ष ने अपने पिता ब्रह्मा जी का आदर किया और उनकी आज्ञा का पालन करते हुए उनके दिए गए आसन पर बैठ गए। लेकिन उन्होंने देखा कि शिव जी आसन पर बैठे हुए ही रहे और उठकर उन्होंने उनका सम्मान नहीं किया।
उनके इस व्यवहार से अपने अपमान को समझकर, वह क्रूर नजर से उनकी ओर देखे और इस महासभा में वे उनके बारे में बुरे शब्द बोलकर पछताए कि मैंने एक सुंदर, साध्वी और भोली-भाली कन्या को इस पुरुष को दे दिया है। दक्ष ने श्री शिव जी को श्राप दिया कि वे देवयज्ञों में इन्द्र और उपेन्द्र जैसे देवताओं के साथ भाग नहीं ले सकेंगे। श्री शिव जी ने कुछ नहीं कहा और सभा से बाहर निकलकर अपने स्थान पर वापस चले गए।
इस जानकारी से पता चलता है कि दक्ष ने नंदीश्वर पर शाप दिया। नंदीश्वर बहुत गुस्से से भरा और उन्होंने दक्ष और उन ब्राह्मणों को जो दश के कुवाक्यों का समर्थन कर रहे थे, को एक कठिन श्राप दिया। उनका कहना था कि दक्ष अहंकारी हैं, वह अपने शरीर को ही आत्मा मानते हैं, और वे भ्रम को ज्ञान समझते हैं।
वे इंद्रियों के सुखों में आसक्त रहकर कर्मकांड में उलझे रहते हैं। उनका मतलब था कि वे मानवों से अलग नहीं हैं, और उनका व्यवहार भेड़ों की तरह है, और उनका मुख तेजी से बकरे के समान है। वे हमेशा आत्मा के ज्ञान से दूर रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप, दोनों ने एक-दूसरे पर शाप दिया और भगवान शिव अपने गणों के साथ वहां से चले गए।
बृहस्पतिसव यज्ञ: दक्ष ने रुद्र (शिव जी) का अपमान किया और सती ने किया शरीर त्याग-
कालान्तर में, दक्ष ने शिव का अपमान करने के लिए बृहस्पति सव नामक यज्ञ किया। इस यज्ञ में, शिव का अपमान हुआ, जिसे देखकर सती ने अपने शरीर को त्याग दिया। सती के शरीर के त्याग को देखकर, शिव के गणों ने दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दिया। शिव जी द्वारा अपमान किए जाने वाले देवताओं और सदस्यों को उचित दंड दिया।
गणनायक वीरभद्र ने दक्ष राजा के सिर को मरोड़ कर अलग करके उसे यज्ञ की दक्षिणाग्नि में डाल दिया, जैसे कि होम कुण्ड में होती है। आखिरकार, उन्होंने यज्ञ शाला को जलादिया और शिव के भक्त शम्भुगण कैलास पर वापस आ गए। इसके बाद, सभी देवता श्री ब्रह्मा जी की सलाह पर भ्रमण करके कैलास पर पहुंचे और भगवान शिव को स्तुति और प्रार्थना करके उन्हें प्रसन्न किया।
भगवान शिव द्वारा दक्ष के दण्डनीति का वर्णन तथा यज्ञारम्भ की पुनर्व्यवस्था-
भगवान शिव ने कहा, अर्थात् प्रजापति! मुझे अपनी माया से मोहित होने वाले दक्ष जैसे अनभिज्ञ लोगों के अपराध की चर्चा नहीं करनी है और उनको याद भी नहीं रखनी है। मैंने केवल सतर्क रहने के लिए थोड़ा-सा दण्ड दिया है। फिर उनके धड़ से एक बकरे का सिर जोड़ दिया गया, लेकिन भगवान शिव की कृपा से दक्ष जी सोते हुए से जाग उठे और सही मार्ग पर चलने लगे।
दक्ष का मन शुद्ध हो गया था, और वह भगवान शिव के प्रति बहुत आदर भावना रखने लगे। उन्होंने भगवान शिव की पूजा की और उनकी महिमा की स्तुति की। इसके बाद, उन्होंने यज्ञ को फिर से आरंभ किया, और इस यज्ञ में भगवान विष्णु ने खुद को प्रकट करके दक्ष को आध्यात्मिक ज्ञान दिया। उन्होंने शिव, ब्रह्मा, और अपने आप में तात्त्विक एकता का सिद्धांत दिया। सभी ने भगवान की पूजा की और यज्ञ सुखपूर्वक सम्पन्न हुआ।
मैंने इस शरीर से शिव का अपमान किया है – इस विचार से प्रजापति दक्ष ने अपने शरीर को त्याग दिया और पुनः मारिषा नामक पत्नी के गर्भ से जन्म लिया। उन्होंने जन्म लेते ही अपनी चमकदार कान्ति के साथ समस्त तेजस्वियों का तेज़ छीन लिया। श्री ब्रह्मा ने उन्हें पुनः प्रजापतियों के नेता के रूप में चुना और उन्हें प्रजापतियों के प्रमुख पद पर आधिकृत बनाया। उन्होंने भगवदराधन के साथ सृष्टि का विस्तार और संरक्षण किया। वे अपने कर्मों में महान थे और इसी कारण उन्हें दक्ष कहा गया।
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