संतों के आशीर्वाद से जन्मे महाभागवत राँका बाँका
Shri Ranka Banka ki Jivan Katha: श्री राँका बाँका जी का जन्म पण्डरपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम लक्ष्मीदत्त था, वह एक ऋग्वेदी ब्राह्मण थे और संतों की सेवा करते थे। एक दिन, साक्षात् नारायण स्वरूप संत उनके घर आए और उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे यहाँ भगवान परम के भक्त जन्म का होगा। और कुछ ही समय बाद उनकी पत्नी रूपा देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया, वह पुत्र महाभागवत राँका जी थे। पण्डरपुर में ही एक दिन वैशाख कृष्ण सप्तमी बुधवार को कर्कलग्न में श्री हरिदेव ब्राह्मण के घर एक कन्या का जन्म हुआ था।
इस कन्या की शादी समय पर राँका जी से हो गई। राँका जी की पत्नी का नाम ‘मती’ था, और उनका वैराग्य इतना था कि उन्हें ‘बाँका’ कहा गया। राँका जी का भी नाम ‘राँका’ था, क्योंकि वे बहुत ही गरीब थे। इतनी गरीबी के बावजूद, पति और पत्नी इसे भगवान की कृपा समझ खुशी-खुशी स्वीकारा, क्योंकि भगवान अपने प्यारे भक्तों का कभी अनर्थ नहीं होने देते ये उन्हें पूराविश्वास था।
राँका बाँका की निस्वार्थ भक्ति: धन-संपदा से परे प्रभु की कृपा का वरदान
राँका बाँका जी दोनों जंगल से रोज़ सूखी लकड़ियों को चुनकर लाते थे और उन्हें बेचकर जो कुछ पैसा मिलते, उन्हें पैसो से अपने जीवन का निर्वाह करते। उनके मन में कभी भी सुख या सुख भोगने के तनिक भी इच्छा नहीं थी। वे भगवान की भक्ति करने और प्रभु के प्रसाद से अपने जीवन को चलाने में संतुष्ट रहते थे। उनके जैसे भक्त को दरिद्रता के कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था, ये सब नामदेव नहीं देख प् रहे थे। एक दिन यह देखकर नामदेव जी ने किया विचार राँका और बाँका जी कभी भी किसी से धन लेते नहीं।
तब नामदेव जी ने भगवान श्री पाण्डुरंग से राँका बाँका के जीवन की दरिद्रता को दूर करने के लिए प्रार्थना की। भगवान ने कहा, “नामा, राँका मेरा परम भक्त है उसे मेरी बहकती के सिवा और कुछ नहीं चाहिए मैं उन्हें धन वैभव देना भी चाहु तो वे नहीं लेंगे। उसको धन की कमी कैसे हो सकती है? लेकिन वह धन के कुछ दोषों को जानकर दूर रहना चाहता है। वह देने के बावजूद कुछ नहीं लेगा।
नामदेव जी ने प्रभु से कहा नहीं नाथ आपको कुछ करना ही होगा। तब श्री पाण्डुरंग ने कहा ठीक है तो कल प्रातःकाल वन में मिलना जहां रांका बांका लकड़िया बिनने जाते है तुम मुझे वही मिलना नामदेव जी ने कहा ठीक है प्रभु।
दूसरे दिन नामदेव जी के साथ मिलकर भगवान ने सोने की मुहरों से भरी हुई थैली को जंगल के मार्ग में रख दिया। कुछ मुहरें बाहर गिरा दी और फिर वह अपने भक्त का चरित्र देखने के लिए छिप गए। राँका बांका जी नित्य की तरह भगवन के नाम का कीर्तन करते रहते हुए मार्ग पर बढ़ रहे थे, और उनकी पत्नी उनके पीछे थी। मार्ग पर, जब उन्होंने मुहरों से भरी हुई थैली को देखा, तो पहले वे आगे बढ़ने लगे, लेकिन फिर सोचकर वह वहीं ठहर गए और हाथ में धूल लेकर थैली तथा मुहरों को ढकने लगे।
उनके मन में ये विचार आया स्त्री का सोने में लगाव होता है कही उनकी पत्नी इन मोहरों को देखकर मोहित न हो जाये। रांका जी की पत्नी ने पूछा नाथ आप क्या ढक रहे हो तब रांका बोले मैंने सोचा कि तुम पीछे आ रही हो, कहीं सोना देखकर तुम्हारे मन में लोभ न आ जाय, इसलिये इसे धूल से ढके देता हूँ। धन का लोभ मन में आ जाय तो फिर भगवान् का भजन नहीं होता।” पत्नी ने यह सुनकर हँसकर कहा, “स्वामी! सोना भी तो मिट्टी ही है। आप धुल से धूल का क्यों ढँक रहे हैं?”
बांका जी की ये बात सुनकर राँका जी उठकर खड़े हुए। वे खुश होकर बोले – बहुत अच्छा! तुम्हारा यह वैराग्य वास्तव में बहुत श्रेष्ठ है। मेरे मन में सोने और मिट्टी के बीच अंतर है। पर तुम्हरे किये तो ये दोनों की मिटटी है तुम्हरी भक्ति की स्तिथि तो ऊँची है। इस पर नामदेव जी ने भगवान से कहा – “प्रभु! जिस पर आपकी कृपा होती है, वही सबसे महत्वपूर्ण होता है।”
उसको तो आपके सिवा त्रिभुवन का राज्य भी नहीं पसंद। जिसको अमृत का स्वाद मिल गया, वह भला, सड़े गुड़ की ओर क्यों देखने लगा? ये जोड़ा बहुत धन्य है। भगवान श्री नामदेव जी से बोले – देखो, हमारी बात सच हुई। ये दोनों धन के प्रति उत्साही ही नहीं हैं।
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राँका जी की ईमानदारी: भगवान की परीक्षा में खरा उतरने की कथा
भगवान की जीत हो गई, लेकिन श्री नामदेव जी हार गए। तब भगवान ने कहा, “अगर तुम्हारे मन में श्री राँका बाँका जी की मदद करने का खास मन है, तो चलो, लकड़ी इकट्ठा करने के लिए जंगल में चलते है।” उस दिन, भगवान ने वन में सूखी लकड़ियों को इकट्ठा करने का काम किया। जब दम्पति वन में पहुंचे, तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वन में इतनी सारी लकड़ियाँ गठ्ठर बन के रखा है।
राँका जी ने गठ्ठों में बांधकर रखी लकड़ियों लकड़ियों को बिनकर अपने लिए कर सोचा शायद कोई पहले ही गठ्ठर रख गया है। दूसरे की वस्तु की तरफ देखना गलत है, यह लकड़ी के गठ्ठर किसी ओर के है। इसके परिणामस्वरूप, वे दोनों खाली हाथ वापस अपने घर आ गए। इस पर, राँका जी ने कहा, “देखो, सोने को देखने का क्या दुष्ट परिणाम निकला बिना लकड़ी लाये जंगल से खली हाथ लौटना पड़ा आज हमें उपवास करना होगा जैसी भगवान की इच्छा। अगर हमने उसे छू लिया होता, तो हमें कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता।
अपने भक्त की ऐसी निष्ठा को देखकर भगवान को प्रकट हो गए, राँका बाँका दम्पती उनके चरणों में गिर पड़े। वहाँ, भगवान ने राँका जी से कुछ माँगने के लिए कहा। तब वे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे कि वे कुछ और नहीं चाहते, सिवाएं भगवान की कृपा के।
इस पर, श्री नामदेव जी ने हाथ जोड़कर कहा, “ठीक है, अगर और कुछ नहीं तो कृपा के अलावा, आप भगवान का एक प्रसादी वस्त्र शरीर पर पहन लें।” यद्यपि श्री राँका बाँका जी को लगा कि वस्त्र से उनके सिर पर एक भार पड़ गया, लेकिन उन्होंने भक्ति और भगवान के सम्मान में वस्त्र स्वीकार किया। और जीवन भर सच्ची निष्ठा के साथ श्री राँका बाँका भगवान की भक्ति में लगे रहे और अंत में भगवान के धाम को प्राप्त किया।
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